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## Adipurana 50 **173.** That cave, holding the Digvijaya-prasavagaram, was double. It was well-covered, well-guarded, and had a hidden entrance. **174.** It was adorned with nine towering peaks, resembling the crown of the Earth Goddess, and surrounded by rows of verdant forests, like blue garments. **175.** At its base, it was fifty yojanas wide, twenty-five yojanas high, and a quarter of that, one hundred and twenty-five yojanas, was buried beneath the earth. **176.** Ten yojanas above the earth, it was thirty yojanas wide, and ten yojanas further up, it narrowed to only ten yojanas in the front. **177.** Its edges were sometimes high, sometimes low, sometimes level, and sometimes uneven with rocks. **178.** From the region where the sun-baked, gem-studded rocks were, groups of monkeys were retreating, making the mountain resound with their clamor. **179.** In some places, herds of elephants were terrified by the roars of lions, while in others, the forest was filled with the sweet sounds of cuckoos. **180.** In some places, snakes were fleeing into their burrows, terrified by the cries of peacocks, and the entire wilderness was filled with fear.
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________________ आदिपुराणम् ५० 'दिग्जयप्रसवागारं दधानं तद् गुहाद्वयम् । सुसंवृतं सुगुप्तं च गूढान्तर्गर्मनिर्गमम् ॥ १७३॥ कूटैर्नवभिरुत्तुङ्गैर्भूद्देव्यामकुटोपमैः । विराजमानमानीलवनालीपरिधानकम् ॥१७४॥ “पृथुं पञ्चाशतं मूले तदर्थं च समुच्छ्रितम् । तत्तुर्यमवगा' गां' दिव्ययोजनमानतः ॥ ३७५ ॥ महीतला इशोपस्य त्रिंशद्योजनविस्तृतम् । ततोऽप्यध्वं दशोत्पत्य दशविस्तृतमग्रतः ॥ १७६ ॥ क्वचिदुन्नतमानिम्नं क्वचित् समतलं क्वचित् । क्वचिदुच्चावचप्रावस्थपुटं दधतं तटम् ॥ १७७॥ क्वचिद् ब्रध्नकरोतप्तरत्नप्रावाद्मगोचरात् । अपसर्पत् कपिम्रातकृत कोलाहलाकुलम् ॥१७८॥ क्यचित् कण्ठीरवारात्रत्रस्ताने कपयूथपम् । 'कलकण्ठीकलालापवाचालितत्रनं क्वचित् ॥ १७९ ॥ क्वचिच्छिखीमुखां' 'द्गीर्णकेकारावविभीषितैः” । सर्वैः सत्रासमायुप्त "कान्ताराम्तषिलान्तरम् ॥ १८०॥ 93 * ४१४ से उसका भेदन नहीं हो सकता था, जिनेन्द्रदेव जिस प्रकार अलंघ्य हैं अर्थात् उनके सिद्धान्तोंका कोई खण्डन नहीं कर सकता उसी प्रकार वह पर्वत भी अलंघय अर्थात् लाँघनेके अयोग्य था, जिनेन्द्रदेव जिस प्रकार महोन्नत अर्थात् अत्यन्त श्रेष्ठ हैं उसी प्रकार वह पर्वत भी महोन्नत अर्थात् अत्यन्त ऊँचा था और जिनेन्द्रदेव जिस प्रकार जगत् के गुरु हैं उसी प्रकार वह पर्वत भी - गुरु अर्थात् श्रेष्ठ अथवा भारी था ।। १७२ ।। वह विजयार्ध, चक्रवर्तीके दिग्विजय करने के लिए प्रसूतिगृह के समान दो गुफाएँ धारण करता था क्योंकि जिस प्रकार प्रसूतिगृह ढका हुआ और सुरक्षित होता है उसी प्रकार वे गुफाएँ भी ढकी हुई और देवों द्वारा सुरक्षित थीं तथा जिस प्रकार प्रसूतिगृह के भीतरका मार्ग छिपा हुआ होता है उसी प्रकार उन गुफाओंके भीतर जानेका मार्ग भी छिपा हुआ था || १७३॥ वह पर्वत ऊँचे-ऊंचे नौ कूटोंसे शोभायमान था जो कि पृथिवी देवीके मुकुटके समान जान पड़ते थे और उसके चारों ओर जो हरे-हरे वनों की पंक्तियाँ शोभायमान थीं वे उस पर्वत के नील वस्त्रोंके समान मालूम होती थीं || १७४ ॥ | वह बड़े योजनके प्रमाणमूल भागमें पचास योजन चौड़ा था, पचीस योजन ऊँचा था और उससे चौथाई अर्थात् सौ पचीस योजन पृथ्वीके नीचे गड़ा हुआ था || १७५ || पृथ्वीतलसे दस योजन ऊपर जाकर वह तीस योजन चौड़ा था और उससे भी इस योजन ऊपर जाकर अग्रभागमें सिर्फ दस योजन चौड़ा रह गया था || १७६ ।। इसका किनारा कहीं ऊँचा था, कहीं नीचा था, कहीं सम कहीं-कहीं उस पर्वत पर लगे हुए रत्नमयी इसलिए उसके आगे से छह थे था और कहीं ऊँचे-नीचे पत्थरोंसे विषम था ॥ १७७॥ पाषाण सूर्यकी किरणोंसे बहुत ही गरम हो गये प्रदेशसे वानरों के समूह हट रहे थे जिससे वह पर्वत उन वानरों द्वारा किये हुए कोलाहलसे आकुल हो रहा था । ।। १७८ ।। उस पर्वत पर कहीं तो सिंहोंके शब्दोंसे अनेक हाथियोंके झुण्ड भयभीत हो रहे थे और कहीं कोयल के मधुर शब्दों से वन वाचालित हो रहे थे || १७९ || कहीं मयूरोंके मुख से निकली हुई का वाणी से भयभीत हुए सर्प बड़े दुःखके साथ वनोंके भीतर अपने-अपने बिलों में घुस १. दिग्जयसूतिकागृहम् । २. प्रसिद्धम् । ३. सुप्रच्छन्नम् । ४. मुकुटो - अ०, प०, म०, ल० । ५. अधऽशुक्रम् । ६. विष्कम्भमित्यर्थः । ७ तदुन्नतेश्वतुर्थांशभागम्, क्रोश । धिकषड्योजनमिति यावत् । ८. प्रविष्टम् । ९. पृथिवीम् । १०. दशयोजनमुत्क्रम्य । ११. नानाप्रकारपापापविषमोन्नतम् । १२. सूर्यकिरणसंतप्त सूर्यकान्त शिलाग्र प्रदेशात् । १३. कोकिला । १४. मयूर मुखोद्भूत। १५. भीति नीतः । १६. मासष्ट इति त०-ब ० पुस्तकयोः पाठान्तरम् ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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