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366 The Adipurana states that the earth was purified by the water of the horses' hooves, and thus, by destiny, the king's wealth was secured. The Lord was anointed by the celestial beings with golden pitchers, just as Mount Mandara is adorned by the evening clouds. The kings, led by Nabhiraj, all anointed him together, saying, "This Vrishabhadeva is truly worthy of being king." The citizens also anointed his feet with water from the Sarayu River, some using lotus leaf cups, others earthen pots. The Indra of the Vyantara gods, led by Magadha, also anointed him with joy, saying, "He is the lord of our land." The Lord Vrishabhadeva was first bathed in holy water, then in kasaya water, and finally in fragrant water. He then entered a golden bath-pond filled with warm water and enjoyed a pleasant bath. The earth, adorned with the garlands, clothes, and ornaments that he discarded after his bath, seemed to have received the gifts of her lord's touch. (This is a metaphor for the love between a man and a woman, where they wear each other's clothes and ornaments.) As the celestial singers chanted auspicious hymns, the Lord Vrishabhadeva received a bath fit for a king, one that would bring him the goddess of fortune. After his bath and the offering of incense, the Lord was adorned with garlands, ornaments, and clothes brought from heaven by the gods.
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________________ ३६६ आदिपुराणम् जलैरनाविलमत्तुरङ्गसंगात् पवित्रितः । पराक्रान्ता ध्रुवं दिष्ट्या वद्धिता स्वामिसंपदा ॥२२२॥ कृताभिषेको रुरुचे भगवान् सुरनायकैः । हैमैः कुम्भैर्धनैः सान्ध्यः यथा मन्दरभूधरः ॥२२३॥ नृपा मू मिषिका ये नामिराजपुरस्सराः। राजबद्राजसिंहोयमभ्यषिच्यत तैस्समम् ॥२२४॥ पौराश्च नलिनीपत्रपुटः कुम्भश्च मात्तिकः । सारवेणाम्बुना चक्रुभर्तुः पादामिषेचनम् ॥२२५॥ मागधायाश्च वन्येन्द्रा विज्ञानधरमार्चिचन् । नाथोऽस्मद्विषयस्येति प्रीताः पुण्यामिपेचनैः ॥२२६॥ पूतस्तीर्थाम्बुमिः स्नातः कषायसलिलैः पुनः । धौतो गन्धाम्बुमिर्दिम्य रस्नापि "चरमं विभुः ॥२२७॥ कृतावगाहनो भूयो हमस्नानोदकुण्डकं । सुखोप्णः सलिलैर्धाता सुखमजनमन्वभूत् ॥२२८॥ "स्नानान्तोज्झितविक्षिप्तमाल्यांशुकविभूषणः ।' भर्तुः प्राप्ताङ्गसंस्पृष्टि दायवासीराङ्गना ॥२२९॥ "सुस्नातमङ्गलान्युच्चैः पठत्सु सुरवन्दिषु । राज्यलक्ष्मीसमुदाह स्नानं निरं विशद् विभुः ॥२३०॥ अथ निर्वर्तितस्नानं कृतनीराजनं विभुम् । “स्वर्भुवो भूषयामासुदिन्यैः स्रग्भूषणाम्बरः ॥२३॥ पवित्र हुई निर्मल जलसे समस्त पृथिवी व्याप्त हो गयी थी इसलिए वह ऐसी जान पड़ती थी मानो स्वामी वृषभदेवकी राज्य-सम्पदासे सन्तुष्ट होकर अपने शुभ भाग्यसे बढ़ ही रही हो ।। २२२ ।। इन्द्र जव सुवर्णके बने हुए कलशोंसे भगवान्का अभिषेक करते थे तब भगवान ऐसे सुशोभित होते थे जैसे कि सायंकालमें होनेवाले बादलोंसे मेरु पर्वत सुशोभित होता है ।। २२३ ।। नाभिराजको आदि लेकर जो बड़े-बड़े राजा थे उन सभीने 'सब राजाओंमें श्रेष्ठ यह वृषभदेव वास्तवमें राजाके योग्य हैं' ऐसा मानकर उनका एक साथ अभिषेक किया था ।।२२४।। नगरनिवासी लोगोंने भी किसीने कमलपत्रके बने हुए दोनेसे और किसीने मिट्टीके घड़ेसे सरयू नदीका जल लेकर भगवान्के चरणोंका अभिषेक किया था ।। २२५ ॥ मागध आदि व्यन्तरदेवोंके इन्द्रोंने भी तीन ज्ञानको धारण करनेवाले भगवान् वृषभदेवकी 'यह हमारे देशके स्वामी हैं। ऐसा मानकर प्रीतिपूर्वक पवित्र अभिषेकके द्वारा पूजा की थी ॥ २२६ ।। भगवान् वृपभदेवका सबसे पहले तीर्थजलसे अभिषेक किया था फिर कपाय जलसे अभिपेक किया गया और फिर सुगन्धित द्रव्योंसे मिले हुए सुगन्धित जलसे अन्तिम अभिषेक किया गया था ।।२२७।। तदनन्तर जिनका अभिषेक किया जा चुका है ऐसे भगवान्ने कुछ-कुछ गरम जलसे भरे हुए स्नान करने योग्य सुवर्णके कुण्डमें प्रवेश कर सुखकारी स्नानका अनुभव किया था ।।२२८ाभिगवान्ने स्नान करनेके अन्तमें जो माला, वस्त्र और आभूषण उतारकर पृथिवीपर छोड़ दिये थे-डाल दिये थे उनसे वह पृथिवीरूपी स्त्री ऐसी मालुम होती थी मानो उसे स्वामीके शरीरका स्पर्श करनेवाली वस्तुएँ ही प्रदान की गयी हो । भावार्थ-लोकमें स्त्री पुरुष प्रेमवश एक दूसरेके शरीरसे छुए गये वस्त्राभूपण धारण करते हैं यहाँपर आचार्यने भी उसी लोकप्रसिद्ध बातको उत्प्रेक्षालंकारमें गुम्फित किया है ।।२२९।। इस प्रकार जब देवोंके वन्दीजन उच्च स्वरसे शुभस्नानसूचक मंगल-पाठ पढ़ रहे थे तब भगवान् वृषभदेवने राज्यलक्ष्मीको धारण करने अथवा उसके साथ विवाह करने योग्य स्नानको प्राप्त किया था ।।२३०।। तदनन्तर जिनका अभिषेक पूर्ण हो चुका है और जिनकी आरती की जा चुकी है ऐसे भगवान्को देवोंने स्वर्गसे लाये हुए माला, आभूषण और वस्त्र आदिसे अलंकृत किया ।। २३१ ।। १. सन्तोपेण । २. राजाहम् यथा भवति तथा। ३. युगपत् । ४. मृत्तिकामयैः । ५. सरयूसंबन्धिना। ६. मागधवरतनुप्रमुखाः । ७. व्यन्तरेन्द्राः। ८. प्रीत्या प०, म०, द०, ल०। -द्रव्य- म०, ल० । १०. अभ्यपेचि । ११. पश्चात् । १२. सुस्नातोजिमत-स०। १३ भर्तुः सकाशात् । १४. विवाहाद्युत्साहे देये द्रव्यं दायः । दानेवासो- ५०, म०, ल० । १५. सुस्नान । सुस्नात-प०, म०, द०, ल०।१६. विवाह । १७. अन्वभवत् । १८. देवाः।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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