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आदिपुराणम् गर्धवीक्षितैस्तस्य शरैरिव मनोभुवः । कामिन्यो हृदये विद्धा दधुः सद्योऽतिरक्तताम् ॥१८॥ रत्नकुण्डलयुग्मन गण्डपर्यन्तचुम्बिना । प्रतिमानं श्रुतार्थस्य विधिसचिव सोऽद्युतत् ॥१८९॥ मदनाग्नेरिवोद्बोध नालिका ललिताकृतिः । नासिकास्य बभौ किंचिदवाना शुकतुण्डरुक् ॥१९०॥ बभौ पयःकणाकीर्णविद्रमाङ्कुरसच्छविः । सितस्तस्यामृतेनेव स्मितांशुच्छु रिता ऽधरः ॥१९॥ कण्ठे हारलतारम्ये काप्यस्य श्रीरभद् विभोः । प्रत्यग्रोशिन्नमुनौघ कम्युग्रीवोपमोचिता ॥१९२॥ कण्ठाभरणरत्नांशु संभृतं तदुरःस्थलम् । रत्नद्वीपश्रियं बभ्रे" हारवल्लीपरिष्कृतम् ॥१९३॥ स बमार भुजस्तम्भपर्यन्तपरिलम्बिनीम् । लक्ष्मीदेव्या इवान्दोलवल्लरी हारवल्लरीम् ॥१९४॥ जयश्री जयोरस्य बबन्ध प्रेमनिध्नताम् । केयूरकोटिसंघट्टकिणीभूतांसपीठयोः ॥१९५॥ बाहुदण्डेऽस्य मलोकमानदण्ड इवायते । कुलशेलास्थया नूनं तेने लक्ष्मीः परां ''तिम् ।।१९६।। शङ्खचक्रगदाकूर्मझषादिशुभलक्षणः । रेजे हस्ततलं तस्य नमस्स्थलमिवोहुभिः ।।१९७॥ .
अंसावलम्बिना ब्रह्मसूत्रेणासौ दधे श्रियम् । हिमाद्रिरिव गाङ्गेन स्रोतसोम्संगसंगिना ।।१९८॥ प्रायः किसका उल्लंघन नहीं करते ? अर्थात् सभीका उल्लंघन करते हैं । १८७|| कामदेवके बाणोंके समान उसके अर्धनेत्रों (कटाक्षों) के अवलोकनसे हृदयमें घायल हुई स्त्रियाँ शीघ्र ही अतिशय रक्त हो जाती थीं । भावार्थ-जिस प्रकार बाणसे घायल हुई स्त्रियाँ अतिशय रक्त अर्थात् अत्यन्त खूनसे लाल-लाल हो जाती हैं उसी प्रकार उसके आधे खुले हुए नेत्रोंके अव. लोकनसे घायल हुई स्त्रियाँ अतिशय रक्त अर्थात् अत्यन्त आसक्त हो जाती थीं ॥१८८। वह गालोंके समीप भाग तक लटकनेवाले रत्नमयी कुण्डलोंके जोड़ेसे ऐसा शोभायमान होता था मानो शास्त्र और अर्थको तुलनाका प्रमाण ही करना चाहता हो ॥१८९।। कुछ नीचेकी ओर झुकी हुई और तोतेकी चोंचके समान लालवर्ण उसकी सुन्दर नाक ऐसी शोभायमान हो रही थी मानो कामदेवरूपी अग्निको प्रज्वलित करनेके लिए फूंकनेकी नाली ही हो ॥१९०।। जिस प्रकार जलके कणोंसे व्याप्त हुआ मूंगाका अंकुर शोभायमान होता है उसी प्रकार मन्द हास्य की किरणोंसे व्याप्त हुआ उसका अधरोष्ठ ऐसा शोभायमान होता था मानो अमृतसे ही सींचा गया हो ॥१९१॥ राजकुमार भरतके हाररूपी लतासे सुन्दर कण्ठमें कोई अनोखी ही शोभा थी। वह नवीन फूले हुए पुष्पोंके समूहसे सुशोभित शंखके कठण्को उपमा देने योग्य हो रही थी॥१९२॥ कण्ठाभरणमें लगे हुए रत्नोंकी किरणोंसे भरा हुआ उसका वक्षःस्थल हाररूपी वेलसे घिरे हुए रत्नद्वीपकी शोभा धारण कर रहा था ॥१९३।। वह अपनी भुजारूप खंभोंके पर्यन्त भागमें लटकती हुई जिस हाररूपी लताको धारण कर रहा था वह ऐसी मालूम होती थी मानो लक्ष्मीदेवीके झूलाकी लता ( रस्सी) ही हो ॥१९४|| उसकी दोनों भुजाओंके कन्धोंपर बाजूबन्दके संघट्टनसे भट्टे पड़ी हुई थी और इसलिए ही विजयलक्ष्मीने प्रेमपूर्वक उसकी भुजाओंकी अधीनता स्वीकृत की थी॥१९५।। उसके बाहुदण्ड पृथिवीको नापनेके दण्डके समान बहुत ही लम्बे थे और उन्हें कुलाचल समझकर उनपर रहनेवाली लक्ष्मी परम धैर्यको विस्तृत करती थी ॥१९६।। जिस प्रकार अनेक नक्षत्रोंसे आकाश शोभायमान होता है उसी प्रकार शंख, चक्र, गदा, कूर्म और मीन आदि शुभ लक्षणोंसे उसका हस्त-तल शोभायमान था ॥१९७।। कन्धेपर लटकते हुए यज्ञोपवीतसे वह भरत ऐसा सुशोभित हो रहा था जैसा कि ऊपर बहती हुई गंगा
१. अनुरागितां रुधिरतां च । २. तुलाप्रमितिम् । ३. श्रुतं च अर्थ च श्रुतार्थं तस्य । ४. प्रकटीकरणनालिका । ५. नता। ६. व्याप्तः । ७. -च्छुरिताधरः स० । -स्फुरितोऽधरः ५०, द०। ८. -पुष्पोध- १०, अ०, म०, स०। ९. सहितम् । १०. दधे । ११. स्थितिम । .