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पश्चदशं पर्व
३३७ रत्नगर्भव सा भूमिः फलगर्भव वल्लरी । तेजोगर्भव दिक्प्राची नितरां रुचिमानशे ॥१३२॥ सा मन्दं गमनं भेजे मणिकुटिमभूमिपु । हंसाव नूपुरोदारशिजानैमञ्जमाषिणी ॥१३३॥ सावष्टम्मपदन्यासैर्मुद्र यन्तीव सा धराम् । स्वभुक्त्यै मन्थरं यातममजन् मणिभूमिपु ॥१३॥ उदरेऽस्या वलीभङ्गो नाश्यत यथा पुरा । अमङ्गं तत्सुतस्यव दिग्जयं सूचयन्नसौ ॥१३५।। नीलिमा तस्कुचापाग्रमास्पृशद् गर्भसंभवे । गर्मस्थोऽस्याः सुतोऽन्येषां निर्दहन्नू नमुन्नतिम् ॥१३६॥ दोहदं परमोदात्तमाहारे मन्दिमा रुचेः । सालसं गतमायासात् स्रस्ताङ्गशयनं भुवि ॥१३७॥ मुखमापाण्डु गण्डान्तं वीक्षणं सालसेक्षितम् । आपाटलाधरं वक्त्रं मृत्स्नासुरभि गन्धि च ॥१३८॥ इत्यस्या गर्भचिह्नानि मनः पत्युररअयन् । ववृधे च शनैर्गो द्विषच्छकीररअयन् ।।१३९॥ नवमासेप्यतीतेषु तदा सा सुषुवे सुतम् । प्राचीवाक स्फुरत्तेजःपरिवेषं महोदयम् ॥१४०॥
शुभे दिने शुभे लग्ने योगें दुरुदुराहये । सा प्रासोष्ट सुतामण्यं स्फुरस्साम्राज्यलक्षणम् ।।१४।। वृषभदेव भी उस गर्भिणी यशस्वती देवीको बड़ी ही उत्सुक दृष्टिसे देखते थे ॥१३१॥ वह यशस्वती देवी, जिसके गर्भ में रत्न भरे हुए हैं ऐसी भूमिके समान, जिसके मध्यमें फल लगे हुए हैं ऐसी बेलके समान, अथवा जिसके मध्यमें सूर्यरूपी तेज छिपा हुआ है ऐसी पूर्व दिशाके समान अत्यन्त शोभाको प्राप्त हो रही थी ॥१३२॥ वह रत्नखचित पृथिवीपर हंसीकी तरह नपुरोंके उदार शब्दोंसे मनोहर शब्द करती हुई मन्द-मन्द गमन करती थी॥१३३॥ मणियोंसे जड़ी हुई जमीनपर स्थिरतापूर्वक पैर रखकर मन्दगतिसे चलती हुई वह यशस्वती ऐसी जान पड़ती थी मानो पृथिवी हमारे ही भोगके लिए है ऐसा मानकर उसपर मुहर ही लगाती जाती थी ॥१३४॥ उसके उदरपर गर्भावस्थासे पहले की तरह हो गर्भावस्थामें भी वलीभंग अर्थात् नाभिसे नीचे पड़नेवाली रेखाओंका भंग नहीं दिखाई देता था और उससे मानो यही सूचित होता था कि उसका पुत्र अभंग नाशरहित दिग्विजय प्राप्त करेगा (यद्यपि स्त्रियोंके गर्भावस्थामें उदरकी वृद्धि होनेसे वलीभंग हो जाता है परन्तु विशिष्ट स्त्री होनेके कारण यशस्वती के वह चिह्न प्रकट नहीं हुआ था)।।१३५।। गर्भधारण करनेपर उसके स्तनोंका अग्रभाग काला हो गया था और उससे यही सूचित होता था कि उसके गर्भमें स्थित रहनेवाला बालक अन्य-शत्रओंको उन्नतिको अवश्य ही जला देगा-नष्ट कर देगा ॥१३६॥ परम उत्कृष्ट दोहला उत्पन्न होना, आहारमें रुचिका मन्द पड़ जाना, आलस्यसहित गमन करना, शरीरको शिथिल कर जमीनपर सोना, मुखका गालों तक कुछ-कुछ सफेद हो जाना, आलस-भरे नेत्रोंसे देखना, अधरोष्ठका कुछ सफेद और लाल होना और मुखसे मिट्टी जैसी सुगन्ध आना। इस प्रकार यशस्वतीके गर्भके सब चिह्न भगवान् वृषभदेवके मनको अत्यन्त प्रसन्न करते थे और शत्रुओंकी शक्तियोंको शीघ्र ही विजय करता हुआ वह गर्भ धीरे-धीरे बढ़ता जाता था॥१३७-१३९।। जिसका मण्डल देदीप्यमान तेजसे परिपूर्ण है और जिसका उदय बहुत ही बड़ा है ऐसे सूर्यको जिस पकार पूर्व दिशा उत्पन्न करती है उसी प्रकार नौ महीने व्यतीत होनेपर उस यशस्वती महादेवीने देदीप्यमान तेजसे परिपूर्ण और महापुण्यशाली पुत्रको उत्पन्न किया॥१४०।। भगवान् वृषभदेवके जन्म समयमें जो शुभ दिन, शुभ लग्न, शुभ योग, शुभ चन्द्रमा और शुभ नक्षत्र आदि पड़े थे वे हो शुभ दिन आदि उस समय भी पड़े थे, अर्थात् उस समय, चैत्र कृष्ण नवमीका दिन, मीन लग्न, ब्रह्मयोग, धन राशिका चन्द्रमा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र था। उसी दिन यशस्वती
१. -मानसे प०, अ०, ल.। २. गमनम् । -यातं मणिकुट्टिमभूमिषु म०, ल० । ३. अहमेवं मन्ये । ४. गतमायासीत् प०, द०, ल०। ५. वीक्षितं सालसेक्षणम् प०,०, द०, स०, ल०। ६. परिवेषमहोदयम् अ०, ५०, स० । ७. योगेन्दुभपुराह्वये १०, म., द०। योगे धुरुधुराह्वये अ०, स.। ८. प्रासोष्ट म०,५०, ल०।