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262 The darkness, born of the night, is dispelled by the rising sun. The twilight, filled with love for the sun, shines like an army advancing before its commander. ||134|| This rising sun, the orb of light, does two things at once: it expands the bloom of the lotuses and it causes the moonflowers to fade. ||135|| Or, seeing the lotus bloom, the moonflower fades with envy. ||136|| The sun, with its rays outstretched, rises like a radiant child born from the womb of the east. ||137|| The sun, with its red disc near the Niṣadha mountain, appears like all the evening hues gathered together by Indra. ||138|| With the rising sun, all darkness is dispelled, the distress of the chakwas is gone, the lotuses bloom, and the world is filled with light. ||139|| Now, the cool breeze, carrying the fragrance of the blooming lotuses, blows from all sides. ||140|| Therefore, O Goddess, this is clearly the time for you to wake up. Just as the swan leaves its nest of sand, so too should you leave your pure bed. ||141|| May your mornings always be auspicious, may you attain hundreds of blessings, and just as the east gives birth to the sun, may you give birth to a son who will illuminate the three worlds. ||142|| Although the Goddess of the Wind had already awakened, much earlier than the auspicious songs of the prisoners, they woke her again. Thus, awakened, she saw the whole world filled with joy. ||143|| The Goddess of the Wind, filled with joy from seeing a good dream, was like a blooming lotus, her body tingling with excitement. ||144||
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________________ २६२ आदिपुराणम् तमः शावरमुद्भिय करमानोरुदेव्यतः । सेनेवाग्रेसरी सन्ध्या स्फुरत्यषानुरागिणी ॥१३४॥ मित्रमण्डलमुद्गच्छदिदमातनुते द्वयम् । विकासमन्जिनीषण्ड ग्लानिं च कुमुदाकरे ॥१३५॥ *विकस्वरं समालोक्य पभिन्याः परजाननम् । सासूर्यव परिम्लानिं प्रयात्येष कुमद्वती॥१३६॥ पुरः प्रसारयन्नुच्च: करानुद्याति भानुमान् । प्राचीदिगजनागर्मात् तेजीगर्म हवामकः ॥१३७॥ लक्ष्यते निषधोत्संग मानुरारकमण्डल: । पुजीकृत इवैकत्र सान्ध्यो रागः सुरेश्वरः ॥१३८॥ तमो विधूतमुद्धतः चक्रवाकपरिक्लमः । प्रबोधिताब्जिनी मानो जन्मनोन्मीलितं जगत् ॥१३॥ समन्तादापतत्येष प्रमाते शिशिरो मरुत् । कमलामोदमाकर्षन् प्रफुल्लाइटिजनीवनात् ॥१४॥ इति प्रस्पष्ट एवायं प्रबोधसमयस्तव । देवि मुजाधुना तल्पं शुचि हंसीव सकतम् ॥१४॥ "सुप्रातमस्तु ते नित्यं कल्याणशतभाग्भव । प्राचीवा प्रसाधीष्टाः पुत्रं त्रैलोक्यदीपकम् ॥१४२॥ स्वप्नसंदर्शनादेव प्रबुद्धा प्राक्तरां पुनः । प्रबोधितेत्यदर्शत् सा संप्रमोदमयं जगत् ।।१४३॥ प्रवुद्धा च शुभस्वप्नदर्शनानन्दनिभरात् । तनु कण्टकितामूहे साजिनीव विकासिनी ।।१४४॥ नष्ट नहीं हो सका था वह अब तेज किरणवाले सूर्यके उदय के सम्मुख होते ही नष्ट हो गया है ।।१३३।। अपनी किरणोंक द्वारा रात्रि सम्बन्धी अन्धकारको नष्ट करनेवाला सूर्य आगे चलकर उदित होगा परन्तु उससे अनुराग (प्रेम और लाली) करनेवाली सन्ध्या पहलेसे ही प्रकट हो गयी है और ऐसी जान पड़ती है मानो सूर्यरूपी सेनापतिकी आगे चलनेवाली सेना ही हो॥१३४।। यह उदित होता हुआ सूर्यमण्डल एक साथ दो काम करता है-एक तो कमलिनियोंके समूहमें विकासको विस्तृत करता है और दूसरा कुमुदि नियोंके समूहमें म्लानताका विस्तार करता है ॥१३५।। अथवा कमलिनीके कमलरूपी मुखको प्रफुल्लित हुआ देखकर यह कुमुदिनी मानो ईष्यासे म्लानताको प्राप्त हो रही है ॥१३६॥ यह सूर्य अपने ऊँचे कर अर्थात् किरणोंको ( पक्षमें हाथोंको) सामने फैलाता हुआ उदित हो रहा है जिससे ऐसा मालूम होता है मानो पूर्व दिशारूपो स्त्रीके गर्भसे कोई तेजस्वी बालक ही पैदा हो रहा हो ॥१३७॥ निषध पर्वतके समीप आरक्त (लाल) मण्डलका धारक यह सूर्य ऐसा जान पड़ता है मानो इन्द्रोंके द्वारा इकट्ठा किया हुआ सब सन्ध्याका राग (लालिमा) ही हो ॥१३८॥ सूर्यका उदय होते ही समस्त अन्धकार नष्ट हो गया, चकवा-चकवियांका क्लेश दूर हो गया, कमलिनी विकसित हो गयी और सारा जगत् प्रकाशमान हो गया ॥१३९।। अब प्रभातके समय फूले हुए कमलिनियोंके वनसे कमलोंकी सुगन्ध ग्रहण करता हुआ यह शीतल पवन सब ओर बह रहा है ॥१४०।। इसलिए हे देव, स्पष्ट ही यह तेरे जागनेका समय आ गया है। अतएव जिस प्रकार हंसिनी बालूके टीलेको छोड़ देती है उसी प्रकार तू भी अब अपनी निर्मल शय्या छोड़ ॥१४१।। तेरा प्रभात सदा मंगलमय हो, तू सैकड़ों कल्याणोंको प्राप्त हो और जिस प्रकार पूर्व दिशा सूर्यको उत्पन्न करती है उसी प्रकार तू भी तीन लोकको प्रकाशित करनेवाले पुत्रको उत्पन्न कर ॥१४२॥ यद्यपि वह मरुदेवी स्वप्न देखनेके कारण, बन्दीजनोंके मंगल-गानसे बहुत पहले ही जाग चुकी थी, तथापि उन्होंने उसे फिरसे जगाया। इस प्रकार जागृत होकर उसने समस्त संसारको आनन्दमय देखा ॥१४३।। शुभ स्वप्न देखनेसे जिसे अत्यन्त आनन्द हो रहा है ऐसी जागी हुई मरुदेवी फूली हुई कमलिनीके समान कण्टकिन अर्थात् रोमांचित (पक्षमें काँटोंसे व्याप्त) शरीर धारण कर रही थी ॥१४४।। -..--..-..--.--..-...-.-...-...-.-..-..-- - १. खण्डे अ०, म०, द०, स०, ल.। २. विकसनशीलम् । ३. विधुत स०, ल०। ४. उदयन । ५. प्रकाशितम् । ६. आवाति । ७. शोभनं प्रातःकल्यं यस्याह्नः तत्। ८. 'पू प्राणिप्रसवे' लिङ् । ९. निर्भरा ल०।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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