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एकादशं पर्व
२४३ प्रियागनासंसर्गाद् यदीह सुखमङ्गिनाम् । ननु पक्षिमृगादीनां तिरक्षामस्तु तस्सुखम् ॥१७॥ सुनीमिन्द्रमहे पूतिव्रणीभूतकृयोनिकाम् । अवशं सेवमानः श्वा सुखी चेत् सीजुषां सुखम् ॥१८॥ निम्बदमे यथोत्पन्नः कीटकस्तद्रसोपभुक् । मधुरं तद्रमं वेत्ति तथा विषयिणोऽप्यमी ॥१७९॥ संभोगजनितं खेदं श्लावमानः सुखास्थयो । तत्रैव रतिमायान्ति मवावस्करकीटकाः ॥१८॥ विषयानुभवात् पुंसां रतिमात्रं प्रजायते । रतिश्रेत् सुखमायातं नम्व मेध्यादनेऽपि तत् ॥१८॥ यथामी रतिमासाय विषयाननुभुजते । तथा श्वशूकरकुलं तद्वत्यैवारयमेधकम् ।।१८२॥ गूथकृमेर्यथा गूथरससेवा परं सुखम् । तथैव विषयानीप्सोः सुखं जन्तोविंगहितम् ॥१८३॥ विषयाननुभुक्षानः स्त्रीप्रधानान् सवेपथुः । श्वसन प्रस्विनसङ्गिः सुखी चेदसुखीह कः ॥१८॥
प्रायासमात्रमत्राज्ञः सुखमित्यभिमन्यते । विषयाशाविमूहात्मा श्वेवास्थि दशनैर्दशन् ॥१८५॥ क्षारयुक्त शस्त्रसे चीरने आदिका उपक्रम किया जाता है उसी प्रकार विषयोंकी चाहरूपी रोग उत्पन्न होनेपर उसे दूर करनेके लिए विषय-सेवन किया जाता है और इस तरह जीवोंका यह विषय-सेवन केवल रोगोंका प्रतिकार ही ठहरता है ॥१७६।। यदि इस संसारमें प्रिय स्त्रियों के स्तन, योनि आदि अंगके संसर्गसे ही जीवोंको सुख होता हो तो वह सुख पक्षी, हरिण आदि तिर्यञ्चोंको भी होना चाहिए ।।१७७।। यदि स्त्रीसेवन करनेवाले जीवोंको सुख होता हो तो कार्तिकके महीने में जिसकी योनि अतिशय दुर्गन्धयुक्त फोड़ोंके समान हो रही है ऐसो कुन्तीको स्वच्छन्दतापूर्वक सेवन करता हुआ कुत्ता भी सुखी होना चाहिए ।।१७८। जिस प्रकार नीमके वृक्षमें उत्पन्न हुआ कोड़ा उसके कडुवे रसको पीता हुआ उसे मीठा जानता है उसी प्रकार संसाररूपी विष्ठामें उत्पन्न हुए ये मनुष्यरूपी कीटे स्त्री-संभोगसे उत्पन्न हुए खेदको ही सुख मानते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं और उसीमें प्रीतिको प्राप्त होते हैं। भावार्थ-जिस प्रकार नीमका कीड़ा नीमके कड़वे रसको आनन्ददायी मानकर उसीमें तल्लीन रहता है अथवा जिस प्रकार विष्ठाका कीड़ा उसके दुर्गन्धयुक्त अपवित्र रसको उत्तम समझकर उसीमें रहता हुआ आनन्द मानता है उसी प्रकार यह संसारी जीव संभोगजनित दुःखको सुख मानकर उसीमें तल्लीन रहता है ।।१७९-१८०॥ विषयोंका सेवन करनेसे प्राणियोंको केवल प्रेम ही उत्पन्न होता है। यदि वह प्रेम ही सुख माना जाये तो विष्ठा आदि अपवित्र वस्तुओंके खाने में भी सुख मानना चाहिए क्योंकि विषयी मनुष्य जिस प्रकार प्रेमको पाकर अर्थात् । प्रसन्नताके विषयोंका उपभोग करते हैं उसी प्रकार कुत्ता और शूकरोंका समूह भी तो प्रसन्नताके साथ विष्ठा आदि अपवित्र वस्तुएँ खाता है ॥ १८१-१८२॥ अथवा जिस प्रकार विष्ठाके कीड़ेको विष्ठाके रसका पान करना ही उत्कृष्ट सुख मालूम होता है उसी प्रकार विषय-सेवनकी इच्छा करनेवाले जन्तुको भी निन्ध विषयोंका सेवन करना उत्कृष्ट सुख मालूम होता है ।।१८३।। जो पुरुष, स्त्री आदि विषयोंका उपभोग करता है उसका सारा शरीर काँपने लगता है, श्वास तीत्र हो जाती है और सारा शरीर पसीनेसे तर हो जाता है। यदि संसार में ऐसा जीव भी सुखी माना जाये तो फिर दुखी कौन होगा ? ॥१८४॥ जिस प्रकार दाँतोंसे हड्डी चबाता हुआ कुत्ता अपनेको सुखी मानता है उसी प्रकार जिसकी आत्मा विषयोंसे मोहित हो रही है ऐसा मूर्ख प्राणी भी विषय-सेवन करनेसे उत्पन्न हुए परिश्रम मात्रको ही सुख मानता है । भावार्थजिस प्रकार सूखी हड्डी चबानेसे कुत्तेको कुछ भी रसकी प्राप्ति नहीं होती वह व्यर्थ ही अपनेको सुखी मानता है उसी प्रकार विषय-सेवन करनेसे प्राणीको कुछ भी यथार्थ सुखको प्राप्ति नहीं होती, वह व्यर्थ ही अपनेको सुखी मान लेता है। प्राणियोंकी इस विपरीत मान्यताका
१. कार्तिकमासे । २. मुग्ववुद्धया । ३. आगतम् । ४. विड्भक्षणे । ५. प्राप्तुमिच्छोः । ६. सकम्पः ।