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________________ २४२ आदिपुराणम् 'रुजां यनोपघाताय तदौषधमनौषधम् । यो दन्याविनाशाय नाजसा तज्जलं जलम् ॥१६॥ न विहन्त्यापदं यक्ष नार्थतस्तदनं धनम् । तथा तृष्णाच्छिदे या न तद् विषयजं सुखम् ॥१६९॥ रुजामेष प्रतीकारो यस्त्रीसंमोगजं सुलम् । नियाधिः स्वास्थ्यमापनः कुरुते किं नु भेषजम् ॥१७॥ परं स्वास्थ्यं सुखं नैतद् विषवेष्वनुरागिणाम् । ते हि पूर्व तदात्वे च पर्यन्ते च विदाहिनः ॥१७॥ "मनोनिवृतिमेवेह सुख वान्छन्ति कोविदाः । तस्कुतो विषयान्धानां नित्यमायस्तचेतसाम् ॥१७२॥ विषयानुमवे सौल्वं यत्पराधीनमङ्गिनाम् । साबा, सान्तरं बन्धकारणं दुःखमेव तत् ॥१७॥ आपातमात्ररसिका विषया विषदारुणाः । तदुजवं सुखं नणां कण्डकण्डूयनोपमम् ॥१७॥ दग्धवणे यथा सान्द्रचन्दनद्रवचर्चनम् । किंचिदाश्वासजनन तथा विषयजं सुखम् ।।१७५।। दुष्टत्रणे यथा क्षार-शसपातायुपक्रमः । प्रतीकारो रुजां जन्तोस्तथा विषयसेवनम् ।।१७६॥ जिस प्रकार, जो ओषधि रोग दूर नहीं कर सके वह ओषधि नहीं है, जो जल प्यास दूर नहीं कर सके वह जल नहीं है और जो धन आपत्तिको नष्ट नहीं कर सके वह धन नहीं है । इसी प्रकार जो विपयज सुख तृष्णा नष्ट नहीं कर सके वह विषयज (विषयोंसे उत्पन्न हुआ) सुख नहीं है ॥ १६८-१६९ ॥ स्त्री-संभोगसे उत्पन्न हुआ सुख केवल कामेच्छारूपी रोगोंका प्रतिकार मात्र है-उन्हें दूर करनेका साधन है। क्या ऐसा मनुष्य भी ओषधि सेवन करता है जो रोगरहित है और स्वास्थ्यको प्राप्त है ? भावार्थ-जिस प्रकार रोगरहित स्वस्थ मनुष्य ओषधिका सेवन नहीं करता हआ भी सुखी रहता है उसी प्रकार कामेच्छारहित सन्तोषी अहमिन्द्र स्त्री-संभोग न करता हुआ भी सुखी रहता है ॥ १७० ॥ विषयोंमें अनुराग करनेवाले जीवोंको जो सुख प्राप्त होता है वह उनका स्वास्थ्य नहीं कहा जा सकता है-उसे उत्कृष्ट सुख नहीं कह सकते, क्योंकि वे विषय, सेवन करनेसे पहले, सेवन करते समय और अन्तमें केवल सन्ताप ही देते हैं ॥ १७१ ॥ विद्वान् पुरुष उसी सुखको चाहते हैं जिसमें कि विपयोंसे मनकी निवृत्ति हो जाती है-चित्त सन्तुष्ट हो जाता है, परन्तु ऐसासुख उन विषयान्ध पुरुषोंको कैसे प्राप्त हो सकता है जिनका चित्त सदा विषय प्राप्त करने में ही खेद-खिन्न बना रहता है ।। १७२ ॥ विषयोंका अनुभव करनेपर प्राणियोंको जो सुख होता है वह पराधीन है, बाधाओंसे सहित है, व्यवधानसहित है और कर्मबन्धनका कारण है, इसलिए वह सुख नहीं है किन्तु दुःख ही है ॥ १७३ ॥ ये विषय विषके समान अत्यन्त भयंकर हैं जो कि सेवन करते समय ही अच्छे मालूम होते हैं। वास्तवमें उन विषषोंसे उत्पन्न हुआ मनुष्योंका सुख खाज खुजलानेसे उत्पन्न हुए सुखके समान है अर्थात् जिस प्रकार खाज खुजलाते समय तो मुख होता है परन्तु बादमें दाह पैदा होनेसे उलटा दुःख होने लगता है उसी प्रकार इन विषयोंके सेवन करनेसे उस समय तो सुख होता है किन्तु बादमें तृष्णाकी वृद्धि होनेसे दुःख होने लगता है ।।१७४।। जिस प्रकार जले हुए घावपर घिसे हुए गीले चन्दनका लेप कुछ थोड़ा-सा आराम उत्पन्न करता है उसी प्रकार विषय-सेवन करनेसे उत्पन्न हुआ सुख उस समय कुछ थोड़ा-सा सन्तोप उत्पन्न करता है । भावार्थ-जबतक फोड़ेके भीतर विकार विद्यमान रहता है तबतक चन्दन आदिका लेप लगानेसे स्थायी आराम नहीं हो सकता इसी प्रकार जबतक मनमें विषयोंकी चाह विद्यमान रहती है तबतक विषय-सेवन करनेसे स्थायी सुख नहीं हो सकता। स्थायी आराम और सुख तो तब प्राप्त हो सकता है जब कि फोड़ेके भीतरसे विकार और मनके भीतरसे विषयोंकी चाह निकाल दी जाये। अहमिन्द्रोंके मनसे विषयोंकी चाह निकल जाती है इसलिए वे सच्चे सुखी होते हैं ।। १७५ ॥ जिस प्रकार विकारयुक्त घाव होनेपर उसे १. रुजो- म०, ८०, ल०। २. जलपानेच्छाविनाशाय। ३. तत्काले। ४. मनस्तृप्तिम् । ५. कृधयन्तीत्यर्थः । ६. यासमितम् । ७. अनुभवमात्रम् ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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