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________________ एकादशं पर्व २४१ इत्यादि वर्णनातीतं वपुरस्यातिभास्वरम् । कामनीयकसर्वस्वमेकीभूतामिवारुधत् ।।१५७॥ आहारकशरीरं यन्निरलंकारमास्वरम् । योगिनामृद्धिजं तेन सहगस्याचका द् वपुः ॥१५॥ एकान्तशान्तरूपं यत् सुखमाप्तनिरूपितम् । तदैकध्यमितापनम भूत्तस्मिन् सुरोत्तमे ॥१५॥ तेऽप्यष्टौ भ्रातरस्तस्य धनदेवोऽप्यनस्पधीः । जातास्तत्सदृशा एव देवाः पुण्यानुभावतः ॥१६॥ इति तत्राहमिन्द्रास्ते सुखं मोक्षसुखोपमम् । भुआना निष्प्रवीचाराश्विरमासन् प्रमोदिनः ॥१६॥ पूर्वोकसप्रवीचारसुखानन्तगुणात्मकम् । सुखमव्याहतं तेषां शुभकर्मोदयोद्भवम् ॥१६२॥ संसारे खोसमासंगाद जिनां सुखसंगमः। तदमावे कुतस्तेषां सुखमित्यत्र चर्च्यते ॥११॥ निर्द्वन्द्ववृत्तितामाताः शमुशन्तीह देहिनाम् । तस्कृतस्त्यं सरागाणां द्वन्द्वोपहतचेतसाम् ॥१६॥ खीमोगो न सुखं चेतःसंमोहाद् गात्रसादनात् । तृष्णानुबन्धात् संतापरूपत्वाच यथा ज्वरः ॥१६५॥ मदनज्वरसंतप्तस्तत्प्रतीकारवान्छया । स्त्रीरूपं सेवते श्रान्तों यथा कट्वपि भेषजम् ॥१६६॥ मनोज्ञविषयासेवा तृष्णायै न वितृप्तये । तृष्णार्चिषा च संतप्तः कथं नाम सुखी जनः ॥१६७॥ अधर बिम्बफलको कान्तिको धारण करता था ॥ १५६ ॥ अभीतक जितना वर्णन किया है उससे भी अधिक सुन्दर और अतिशय चमकीला उसका शरीर ऐसा शोभायमान होता था मानो एक जगह इकट्ठा किया गया सौन्दर्यका सर्वस्व (सार) ही हो ॥ १५७ ।। छठे गुण-- स्थानवर्ती मुनियोंके आहारक ऋद्धिसे उत्पन्न होनेवाला और आभूषणोंके बिना ही देदीप्यमान रहनेवाला जो आहारक शरीर होता है ठीक उसके समान ही उस अहमिन्द्रका शरीर देदीप्यमान हो रहा था [विशेषता इतनी ही थी कि वह आभूषणोंसे प्रकाशमान था] ॥ १५८ ।। जिनेन्द्रदेवने जिस एकान्त और शान्तरूप सुखका निरूपण किया है मालूम पड़ता है वह सभी सुख उस अहमिन्द्र में जाकर इकट्ठा हुआ था ॥१५९॥ वजनाभिके वे विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ नामके आठों भाई तथा विशाल बुद्धिका धारक धनदेव ये नौ जीव भी अपने पुण्यके प्रभावसे उसी सर्वार्थसिद्धिमें वज्रनाभिके समान ही अहमिन्द्र हुए ।। १६० । इस प्रकार उस सर्वार्थसिद्धिमें वे अहमिन्द्र मोक्षतुल्य सुखका अनुभव करते हुए प्रवीचार (मैथुन) के बिना ही चिरकाल तक सुखी रहते थे ।। १६१ ॥ उन अहमिन्द्रोंके शुभ कर्मके उदयसे जो निर्वाध सुख प्राप्त होता है वह पहले कहे हुए प्रवीचारसहित सुखसे अनन्त गुना होता है ।। १६२ ।। जब कि संसारमें खोसमागमसे ही जीवोंको सुखकी प्राप्ति होती है तब उन अहमिन्द्रोंके स्त्री-समागम न होनेपर मुख कैसे हो सकता है ? यदि इस प्रकार कोई प्रश्न करे तो उसके समाधानके लिए इस प्रकार विचार किया जाता है ॥१६३।। चूँकि इस संसारमें जिनेन्द्रदेवने आकुलतारहित वृत्तिको ही सुख कहा है, इसलिए वह सुख उन सरागी जीवोंके कैसे हो सकता है जिनके कि चित्त अनेक प्रकारको आकुलताओंसे व्याकुल हो रहे हैं ।।१६। जिस प्रकार चित्तमें मोह उत्पन्न करनेसे, शरीरमें शिथिलता लानेसे, तृष्णा (प्यास) बढ़ानेसे और सन्ताप रूप होनेसे ज्वर सुखरूप नहीं होता उसी प्रकार चित्तमें मोह, शरीरमें शिथिलता, लालसा और सन्ताप बढ़ानेका कारण होनेसे स्त्री-संभोग भी सुख रूप नहीं हो सकता ॥१६॥। जिस प्रकार कोई रोगी पुरुष कड़वी ओषधिका भीसेवन करता है उसी प्रकार कामज्वरसे संतप्त हुआ यह प्राणी भी उसे दूर करनेकी इच्छासे स्त्रीरूप ओषधिका सेवन करता है । १६६ ॥ जब कि मनोहर विषयोंका सेवन केवल तृष्णाके लिए है न कि सन्तोषके लिए भी, तब तृष्णारूपी ज्वालासे संतप्त हुआ यह जीव सुखी कैसे हो सकता है ? ॥ १६७ ॥ १. बभौ । २. प्राप्तम् । ३. संयोगात् । ४. विचार्यते । ५. निष्परिग्रहवृत्तित्वम् । ६. शरीरक्लेशात् । ७.-तेऽभ्यातों प० । तेऽत्या” अ०, द०, स०, म०, ल., । रोगी ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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