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## Chapter 210: The Adi Purana
Those who are of false belief, cruel, and devoted to fierce meditation, who are always hateful and merciless, and who are attached to many beginnings and possessions (23). Those who always oppose Dharma and nourish Adharma, who are defamers of the virtuous, and who are afflicted by envy (24). Those who are excessively cruel to those who are without possessions, who are violent towards the Muni's who are virtuous and devoted to Dharma, and who are fond of honey and meat (25). Those who nourish the killers of other beings, who are extremely cruel, who eat honey and meat, and who approve of those who do so (26). Those men enter the Rasatal (hell) with the weight of their sins. Know this to be the field of retribution for evil deeds (27). Cruel aquatic and terrestrial creatures, snakes, reptiles, women of evil character, and birds all go down (28). The senseless beings go to the first earth called "Dharma," reptiles to the second, birds to the third, snakes to the fourth, lions to the fifth, women to the sixth, and sinful men and fish to the seventh (29-30). The seven earths are Ratna-Prabha, Sharkara-Prabha, Baluka-Prabha, Panka-Prabha, Dhuma-Prabha, Tama-Prabha, and Maha-Tama-Prabha, which are progressively lower (31). Their synonyms are Dharma, Vansha, Shila, (Megha), Anjana, Aristha, Maghavi, and Madhavi, in order (32). In those earths, those beings are born with their faces downwards, hanging like honeybees in a honeycomb, in a repulsive place. How can there be progress for sinful beings? (33). Due to their evil deeds, they immediately acquire a body that is foul-smelling, repulsive, unsightly, and deformed (34). Just as leaves fall down when the branches are broken, so too, those beings of hell, upon acquiring a complete body, fall from their place of birth onto the earth of hell, which is burning with unbearable fire (35).
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आदिपुराणम्
ये च मिथ्याशः क्रूरा रौद्रध्यानपरायणाः । सध्वेषु निरनुक्रोशा' बह्नारम्भपरिग्रहाः ॥ २३ ॥ धर्म ये नित्यमधर्मपरिपोषकाः । दूषकाः साधुवर्गस्य मात्सर्योपहताश्च ये ॥२४॥ रूप्यस्य कारणं ये च निर्ग्रन्थेभ्योऽतिपातकाः । मुनिभ्यो धर्मशीलेभ्यो मधुमांसाशने रताः ॥ २५॥ "वधकान् पोषयित्वान्यजीवानां येऽतिनिघृणाः । खादका मधुमांसस्य तेषां ये चानुमोदकाः ॥ २६॥ ते नराः पापमारेण प्रविशन्ति रसातलम् । विपाकक्षेत्रमेतद्धि विद्धि दुष्कृतकर्मणाम् ॥२७॥ जलस्थलचराः क्रूराः सोरगाव सरीसृपाः । पापशीलाश्व मानिन्यः पक्षिणश्च प्रयान्त्यधः ॥ २८ ॥ प्रयान्त्यसंज्ञिनो घर्मां तां वंशां च सरीसृपाः । पक्षिणस्ते तृतीयां च तां चतुर्थी च पन्नगाः ॥२९॥ सिंहास्तां पञ्चमीं चैव तां च षष्ठीं च योषितः । प्रयान्ति सप्तमीं ताश्च म मत्स्याश्च पापिनः ॥ ३० ॥ रत्नशर्करवालुक्यः पङ्कधूमतमःप्रभाः । तमस्तमःप्रभा' चेति सप्ताधः श्वभ्रभूमयः ॥ ३१ ॥ तासां पर्यायनामानि धर्मा वंशा शिलाञ्जना । अरिष्टा मघवी चैव माधवी चेत्यनुक्रमात् ॥३२॥ तत्र बीभत्सुनि स्थाने जाले' मधुकृतामिव । तेऽधोमुखाः प्रजायन्ते पापिनामुन्नतिः कुतः ॥३३॥ तेऽन्तर्मुहूर्त्ततो गात्रं पूतिगन्धि जुगुप्सितम् । पर्यापयन्ति दुष्प्रेक्षं विकृताकृति दुष्कृतात् ॥३४॥ पर्याप्ताश्च महीपृष्ठे ज्वलदग्न्यतिदुःसहे । विच्छिन्नबन्धनानीव पत्राणि विलुठन्त्यधः ॥ ३५ ॥ निपत्य च महीपृष्ठे निशितायुधमूर्धसु । पूत्कुर्वन्ति दुरात्मानश्छिन्नसर्वाङ्गसन्धयः || ३६ ||
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करते हैं, परस्त्रीरमण करते हैं, मद्य पीते हैं, मिध्यादृष्टि हैं, क्रूर हैं, रौद्रध्यानमें तत्पर हैं, प्राणियों में सदा निर्दय रहते हैं, बहुत आरम्भ और परिग्रह रखते हैं, सदा धर्मसे द्रोह करते हैं, अधर्म में सन्तोष रखते हैं, साधुओंकी निन्दा करते हैं, मात्सर्यसे उपहत हैं, धर्मसेवन करनेवाले परिग्रहरहित मुनियोंसे बिना कारण ही क्रोध करते हैं, अतिशय पापी हैं, मधु और खाने में तत्पर हैं, अन्य जीवोंकी हिंसा करनेवाले कुत्ता, बिल्ली आदि पशुओंको पालते हैं, अतिशय निर्दय हैं, स्वयं मधु, मांस खाते हैं और उनके खानेवालोंकी अनुमोदना करते हैं वे जीव पापके भारसे नरक में प्रवेश करते हैं। इस नरकको ही खोटे कर्मों के फल देनेका क्षेत्र जानना चाहिए ।।२२-२७॥ क्रूर जलचर, थलचर, सर्प, सरीसृप, पाप करनेवाली स्त्रियाँ और क्रूर पक्षी आदि जीव नरकमें जाते हैं ||२८|| असैनी पचेन्द्रिय जीव धर्मानामक पहली पृथ्वी तक जाते हैं, सरीसृप - सरकने वाले -गुहा दूसरी पृथ्वी तक जाते हैं, पक्षी तीसरी पृथ्वी तक, सर्प चौधी पृथ्वी तक, सिंह पाँचवीं पृथ्वी तक, स्त्रियाँ छठवीं पृथ्वी तक और पापी मनुष्य तथा मच्छ सातवीं पृथ्वी तक जाते हैं ।।२९-३०।। रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा और महातमः प्रभा ये सात पृथिवियाँ हैं जो कि क्रम-क्रमसे नीचे-नीचे हैं ||३१|| घर्मा, वंशा, शिला, (मेघा), अंजना, अरिष्टा, मघवी और माघवी ये सात पृथिवियोंके क्रमसे नामान्तर हैं ||३२|| उन पृथिवियोंमें वे जीव मधुमक्खियोंके छत्तेके समान लटकते हुए घृणित स्थानोंमें नीचे की ओर मुख करके पैदा होते हैं। सो ठीक ही है पापी जीवोंकी उन्नति कैसे हो सकती है ?||३३|| वे जीव पापकर्मके उदयसे अन्तर्मुहूर्त में ही दुर्गन्धित, घृणित, देखनेके अयोग्य और बुरी आकृति वाले शरीरकी पूर्ण रचना कर लेते हैं ||३४|| जिस प्रकार वृक्षके पत्ते शाखा बन्धन टूट जानेपर नीचे गिर पड़ते हैं उसी प्रकार वे नारकी जीव शरीरकी पूर्ण रचना होते ही उस उत्पत्तिस्थानसे जलती हुई अत्यन्त दुःसह नरककी भूमिपर गिर पड़ते हैं ||३५||
की भूमिपर अनेक तीक्ष्ण हथियार गड़े हुए हैं, नारकी उन हथियारोंकी नोंकपर गिरते हैं
१. निष्कृपाः । २. धर्मघातकाः । ३. - परितोषकाः ल० । ४. शुनकादीन् । ५. घर्मावंशे । ६. महातमः - प्रभा । ७. सारिष्टा अ०, प०, ८०, स० । ८. गोलके । ९. मधुमक्षिणाम् । १०. दुःकृतात् ब०, अ०, १०, द०, स० । ११. ज्वलनिन्यति - ब०, ८०, ज्वलति व्यति- अ०, प०, ६०, स०, ल० ।
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