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152 This Adipurana is offered by me, my heart filled with love. This is a pledge of truth, offered to fulfill your desires. ||15|| Then, extending his hand, the prince said, "May I see you again, my lady. Farewell." And with these words, he left the Jain temple. ||157|| Taking this news, I have come here. Saying this, the Pandita spread the painting given by the prince before the lady. ||158|| She looked at the painting for a long time, and her faith in the fulfillment of her desires was confirmed. She breathed a sigh of relief. Just as a thirsty chatak bird rejoices at the sight of a cloud, just as a swan rejoices at the sight of the land emerging from the riverbank in the autumn, just as a group of noble beings rejoices at the sight of spiritual scriptures, just as a cuckoo rejoices at the sight of a forest full of blooming flowers, and just as the army of gods rejoices at the sight of the Nandishwar island, in the same way, the lady was overjoyed at the sight of the painting. All her anxieties were gone. Indeed, the fulfillment of one's desires removes the anxiety of everyone. ||159-162|| Then, to confirm that the lady would be fulfilled by obtaining her desired groom, the Pandita spoke words befitting the occasion. ||163|| "O auspicious one, by the grace of fate, you will soon receive many blessings. Have faith, for your union with your beloved will soon happen." ||164|| Don't be doubtful because he left silently, for his mind was fixed on you even then. I have ascertained this well. ||165|| He lingered at the door for a long time, looking at me again and again. 1. Verification. 2. He was spreading. 3. Advanced. 4. Excitement and mental agitation. 5. It was said. 6. Blessings. 7. Have faith. 8. Union. 9. Doubt. 10. Farewell. 11. Silently. 12. It is easy to go in this, so it is easy in this.
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________________ १५२ आदिपुराणम् इदमर्पयतानूनमनुरागो मनोगतः । स्वम्मनोरथसंसिद्धौ सत्यवारोऽर्पितोऽमुना ॥१५॥ ततःकरं प्रसाथि पुनदर्शनमस्तुते। बजबजाम इत्युदीः निरगात् स जिनालयात् ॥१५७॥ गृहीत्वाइंच तद्वार्तामिहागामिति पण्डिता। प्रसारितवतो तस्वाः पुरस्ताभित्रपट्टकम् ॥१५॥ तविर्वर्ण्य चिरं जातप्रत्यया सा समाश्वसीत् । चिरोडप्रौढसंतापा चातकोव धनाधनम् ॥१५९॥ यथा शरवादीतीरपुलिनं हंसकामिनी । भयावली बयाध्यात्मशाकं प्राप्य प्रमोदते ॥१६॥ यथा कुसुमितं चूतकाननं कलकष्ठिका। दीपं नन्दीश्वरं प्राप्य यथा वा पृतनामरी ॥१६॥ तथेदं पट्टकं प्राप्य श्रीमत्यासीदनाकुला । मनोजेटासंपतिः कस्य वा नोकतां हरेत् ॥१६२॥ --- ततः कृतार्थतां तस्या समर्थगितुकामवा । प्रोचे पन्डितवा वाचं श्रीमत्यवसरोचितम् ॥१६३॥ दिव्या कल्यादिकल्याणान्यचिरात् स्वमवाप्नुहि। प्रतीहि प्राणनाथेन प्रत्यास समागमम् ॥१६॥ मागमस्वमनाश्वासं सजोष" गतवानिति । मया सुनिपुणं तस्य भावस्त्वय्युपलक्षितः ॥१५॥ चिरं विलम्बितो द्वारि वीक्षते मां मुहर्मुहः । ब्रजबपि सुगे मागें स्खलस्येव पदे पदे ॥१६॥ सूत्र, वर्ण और धातुओंके अनुबन्धका क्रम स्पष्ट रहता है उसी प्रकार इस चित्रमें भी रेखाओं, रंगों और अनुकूल भावोंका क्रम अत्यन्त स्पष्ट दिखाई दे रहा है अर्थात् जहाँ जो रेखा चाहिए वहाँ वही रेखा खींची गयी है; जहाँ जो रंग चाहिए वहाँ वही रंग भरा गया है और जहाँ जैसा भाव दिखाना चाहिए वहाँ वैसा ही भाव दिखाया गया है ॥१५५।। राजकुमारने मुझे यह चित्र क्या सौंपा है मानो अपने मनका अनुराग ही सौंपा है अथवा तेरे मनोरथको सिद्ध करनेके लिए सत्यंकार (बयाना) हो दिया है ॥१५६।। अपना चित्र मुझे सौंप देनेके बाद राजकुमारने हाथ फैलाकर कहा कि हे आर्ये, तेरा दर्शन फिर भी कभी हो, इस समय जाओ, हम भी जाते हैं । इस प्रकार कहकर वह जिनालयसे निकलकर बाहर चला गया ॥१५७।। और मैं उस समाचारको ग्रहण कर यहाँ आयी हूँ। ऐसा कहकर पण्डिताने वनजंघका दिया हुआ चित्रपट फैलाकर श्रीमतीके सामने रख दिया ॥१५॥ उस चित्रपटको उसने बड़ी देर तक गौरसे देखा, देखकर उसे अपने मनोरथ पूर्ण होनेका विश्वास हो गया और उसने सुखकी साँस ली। जिस प्रकार चिरकालसे संतप्त हुई चातकी मेध. का आगमन देखकर हर्षित होती है, जिस प्रकार हंसी शरद् ऋतुमें किनारेकी निकली हुई जमीन देखकर प्रसन्न होती है, जिस प्रकार भव्य जीवोंकी पंक्ति अध्यात्मशास्त्रको देखकर प्रमुदित होती है, जिस प्रकार कोयल फूले हुए भामोंका बन देखकर आनन्दित होती है और जिस प्रकार देवोंकी सेना नन्दीश्वर द्वीपको पाकर प्रसन्न होती है, उसी प्रकार श्रीमती उस चित्रपटको पाकर प्रसन्न हुई थी। उसकी सब भाकुलता दूर हो गयी थी। सो ठीक ही है अभिलषित वस्तुकी प्राप्ति किसकी उत्कण्ठा दूर नहीं करती ॥१५९-१६२।। तत्पश्चात् श्रीमती इच्छानुसार वर प्राप्त होनेसे कृतार्थ हो जायेगी इस बातका समर्थन करनेके लिए पण्डिता श्रीमतीसे उस अवसरके योग्य वचन कहने लगी॥१६॥ कि हे कल्याणि, दैवयोगसे अब तू शीघ्र ही अनेक कल्याण प्राप्त कर। तू विश्वास रख कि अब तेरा प्राणनाथके साथ समागम शीघ्र ही होगा ॥१६४॥ वह राजकुमार वहाँसे चुपचाप चला गया इसलिए अविश्वास मत कर, क्योंकि उस समय भी उसका चित्त तुझमें ही लगा हुआ था। इस बातका मैने अच्छी तरह निश्चय कर लिया है ॥१६५।। वह जाते समय दरवाजेपर बहुत देर तक विलम्ब करता रहा, बार-बार मुझे देखता था १. सत्यापनम् । २. प्रसारयति स्म। ३. प्रवृद्धः। ४. उन्मनस्कतां चित्तव्याकुलताम् । ५. प्रोच्यते स्म । ६. श्रेयांसि । ७. विश्वास कुरु। ८. संयोगम् । ९. अविश्वासम् । १०. वजजाः । ११. तूष्णीम् । १२. सुखेन गम्यतेऽस्मिन्निति सुगस्तस्मिन् ।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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