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## Seventh Chapter 151. As he walked, bees swarmed around his feet, mistaking them for red lotuses, dyed crimson with lac. 145. The buzzing bees, like whispers of Kama Vidya, seemed to be giving him amorous advice, yet they did not leave even when he tried to shoo them away, clinging to the lotus buds of his ears. 146. This is the artistic skill of the beloved daughter of the king Vajradanta, displayed in this painting. 147. Like Lakshmi, desired by many, she is a maiden with firm breasts, sought after by many, just as you are blessed. 148. She calls you Lalitanga, your heavenly name, but it is a lie, for even in this human form, you are graceful and beautiful. 149. Thus, I spoke, and the prince, a wise man, said, "Well spoken, Pandit, well said. The workings of fate are indeed strange in the attainment of desired objects." 150. See, fate brings together beings from past lives, quickly uniting them in this present life, if they are destined to be together. 151. Fate, in its pursuit of the desired object, brings it from another island, from the ends of the earth, from a distant island, or even from the ocean. 152. Speaking thus, the prince, his hands sweating, took our painting in his hand, filled with curiosity. 153. He then gave us his own painting, in which all the details matching our painting are clearly visible. 154. The order of the threads is clear here, the order of the colors is also clear. This order, like the Pratyahara, is a reminder of the past. 155. The meaning is clear.
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________________ सप्तमं पर्व १५१ तस्याश्चरणविन्यासे लाक्षारक्तां पदावलीम् । भ्रमरा लायन्स्याशु रक्ताम्बुजविशङ्कया ॥१४५॥ कामविद्यामिवादेष्टुं'भ्रमर्यः कलनिस्वनाः । तस्याः कर्णोत्पले लग्ना नापयान्त्यपि ताडिताः ॥१४६॥ देवस्य वज्रदन्तस्य प्रियपुत्र्या तयादरात् । कलाकौशलमात्मीयमिहालेख्ये प्रदर्शितम् ॥१७॥ लक्ष्मीरिवार्थिनां प्राा सेषा कन्या बनस्तनी। मृग्या मृगयते स्वार्थ नान्यस्त्वमिव पुण्यवान् ॥१४८॥ ललिताझं ब्रवीति त्वां प्रिया"दिव्येव तन्मृषा । येनेहापि भवान् सौम्यो लक्ष्यते ललिताङ्गका ॥१४९॥ इत्युक्तस्तु मया साधु पण्डिते साधु जल्पितम् । विधेर्विलसितं चित्रमष्टार्थप्रसिद्धिषु ॥१५॥ पश्य जन्मान्तराजन्तूनानीयैवमनन्तरे । भवे संघटयत्याशु विधिर्यातोऽनुलोमताम् ॥१५॥ द्वीपान्तराद् दिशामन्ताद् अन्तरीपादपानिधेः । विधिर्षटयतोटार्थमानीयान्वीपो गतः ॥१५२॥ इतीरयन् वचो भूयः प्रस्विद्यत्करपल्लवः । तदस्मपट्टकं पाणौ कृतवान् स कुतूहली ॥१५३॥ स्वपट्टकमिदं चान्यत् मम हस्ते समापिपत् । यत्र स्वचित्रसंवादि सर्वमालक्ष्यते स्फुटम् ॥१५॥ सूत्रक्रमः स्फुटोऽत्रास्ति व्यक्तो वर्णक्रमोऽप्ययम् । क्रमो भवानुबन्धस्य प्रत्याहार इवास्त्यहो॥१५५॥ मान रहता है। इसलिए ऐसा जान पड़ता है मानो लक्ष्मीके हाथमें स्थित क्रीड़ाकमलको ही जीतना चाहता हो ॥१४४॥ चलते समय, उसके लाक्षा रससे रंगे हुए चरणोंको लालकमल समझकर भ्रमर शीघ्र ही घेर लेते हैं ॥१४५।। उसके कर्णफूलपर बैठी तथा मनोहर शब्द करती हुई भ्रमरियाँ ऐसी मालूम होती हैं मानो उसे कामशास्त्रका उपदेश ही दे रही हों और इसीलिए वे ताड़ना करनेपर भी नहीं हटती हों ॥१४६॥ राजा वजदन्तकी प्रियपुत्री उस श्रीमतीने ही इस चित्रमें अपना कलाकौशल दिखलाया है ॥१४७। जो लक्ष्मीकी तरह अनेक अर्थीजनोंके द्वारा प्रार्थनीय है अर्थात् जिसे अनेक अर्थोजन चाहते हैं। जो यौवनवती होनेके कारण : स्थूल और कठोर स्तनोंसे सहित है तथा जो अच्छे-अच्छे मनुष्यों-द्वारा खोज करनेके योग्य है अर्थात् दुर्लभ है, ऐसी वह श्रीमती आज आपकी खोज कर रही है। आपकी खोजके लिए ही उसने मुझे यहाँ भेजा है। इसलिए समझना चाहिए कि आपके समान और कोई पुण्यवान नहीं है ॥१४८॥ वह प्यारी श्रीमती आपका स्वर्गका (पूर्वभवका) नाम ललिताङ्ग बतलाती है । परन्तु वह झूठ है क्योंकि आप इस मनुष्य-भवमें भी सौम्य तथा सुन्दर अंगोंके धारक होनेसे साक्षात् ललिताङ्ग दिखायी पड़ते हैं ॥१४९।। इस प्रकार मेरे कहनेपर वह राजकुमार कहने लगा कि ठीक पण्डिते, ठीक, तुमने बहुत अच्छा कहा। अभिलषित पदार्थोकी सिद्धिमें कर्मोंका उदय भी बड़ा विचित्र होता है ।।१५०।। देखो, अनुकूलताको प्राप्त हुआ कोका उदय जीवोंको जन्मान्तरसे लाकर इस दूसरे भवमें भी शीघ्र मिला देता है ॥१५१॥ अनकलताको प्राप्त हुआ दैव अभीष्ट पदार्थको किसी दूसरे द्वीप्रसे, दिशाओंके अन्तसे, किसी अन्तरीप (टाप) से अथवा समुद्रसे भी लाकर उसका संयोग करा देता है ॥१५२॥ इस प्रकार जो अनेक वचन कह रहा था, जिसके हाथसे पसीना निकल रहा था तथा जिसे कौतूहल उत्पन्न हो रहा था, ऐसे उस राजकुमार वजजंघने हमारा चित्रपट अपने हाथमें ले लिया और यह अपना चित्र हमारे हाथमें सौंप दिया। देख, इस चित्र में तेरे चित्रसे मिलते-जुलते सभी विषय स्पष्ट दिखायी दे रहे हैं ॥१५३-१५४॥ जिस प्रकार प्रत्याहारशाल (व्याकरणशास) में . १. उपदेशं कर्तुम् । २. नापसरान्त । ३. मृगयितुं योग्या। ४. भवन्तम् । ५. स्वर्गे। ६. कारणेन । ७. मनोज्ञावयवः। ८.चेष्टितम् । ९. अदृष्टपदार्थः।-मभीष्टार्थ-अ०, ५०, स०, ल. १०. संघट्यत्माश अ०,१०, स०, द०। ११. अनुकलताम् । १२. वारिमध्यद्वीपात। १३. अनुकलताम । १४. बुवन् । १५. समर्पयत् अ०, ५०, स०, ३० । १६. सदृशम् । १७. भावानु-अ०, ५०, स०, ८०, ल.। १८. अज्झलित्यादि।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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