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135 52 The sixth chapter: 'It seemed as if the sky was opening up, as if the heavens were being unveiled, with its towering peaks adorned with a multitude of gems, shining brightly.' (182) 'The constant chanting of the virtuous assembly, the sound of their hymns, seemed like a conversation with the fortunate ones who had arrived.' (183) 'The banners, attached to the peaks, swayed in the wind, adorned with auspicious symbols, as if calling upon the gods.' (184) 'The smoke and incense emanating from the windows seemed to be forming new clouds, as if to offer a gift to heaven.' (185) 'The stars, with their shimmering rays, clinging to the edges of the peaks, created an illusion of a floral offering, as if the gods in the sky were being presented with flowers.' (186) The temple, adorned with beautiful paintings, was a place of virtuous conduct, filled with the sound of hymns, and thus resembled a great epic poem. (187) With its banners fluttering, bells ringing, and the deep sound of hymns, it stood firm on its strong pillars, like a mighty elephant. (188) The temple, with its sound of chanting and the cries of praise, even in the absence of rain, would excite the peacocks, mistaking the sound for thunder. (189) The peak, constantly praised by the charanas, seemed to be a mountain of knowledge, like Mount Meru, surrounded by the celestial beings. (190) Just as the beautiful women of the world captivate the hearts of men, so too did the temple, adorned with its colorful paintings, captivate the hearts of all beings. (181)
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________________ १३५ ५२ षष्ठं पर्व 'दिवामन्यां निशां हतुं क्षमैर्मणिविचित्रितैः । तुङ्गः शृङ्गः स्म यो भाति दिवमुन्मीलयन्निव ॥१८२॥ पठगिरनिशं साधुवृन्दरामन्द्रनिःस्वनम् । प्रजल्पमिव यो मन्ये य॑भाग्यत समागतैः ॥१८३॥ यस्य कूटाप्रसंसक्ताः केतवोऽनिलघहिताः । विबभुर्वन्दनाभन्यै 'ब्याह्वयन्त इवामरान् ॥१८४॥ यद्वातायननिर्याता धूपधूमाश्चकासिरे । स्वर्गस्योपायनीकत्तुं निर्मिमाणा धनानिव ॥१८५॥ यस्य कूटतटालग्नाः तारास्तरलरोचिषः । पुष्पोपहारसंमोहमातन्वनभोजुषाम् ॥१८६॥ सद्वृत्तसंगतो चित्रसंदर्भरुचिराकृतिः । यः सु शब्दो महान्ममो काव्यबन्ध इनाबभौ ॥१८॥ सपताको रणद्घण्टो यो दृढस्तम्भसंभृतः । ब्यमाद् गम्भीरनिर्घोषैः सहित इवेमराट् ॥१८॥ पठतां पुण्यनिर्घोषैः वन्दारूणां च निःस्वनः । यः संदधावकालेऽपि मदारम्भ शिखण्डिषु ॥१८९॥ यस्तुशिखरः शश्वच्चारणैः कृतसंस्तवः । विद्याधरैः समासेन्यो मन्दराद्विरिवायुतत् ॥१९०॥ होकर जगत्के कामी पुरुषोंका चित्त हरण करती हैं उसी प्रकार वे दीवाले भी वर्ण-संकरता (काले पीले नीले लाल आदि रंगोंके मेल)से बने हुए अनेक चित्रोंसे सहित होकर जगत्के सब जीवोंका चित्त हरण करती थीं ॥१८१॥ रातको भी दिन बनानेमें समर्थ और मणियोंसे चित्रविचित्र रहनेवाले अपने ऊँचे-ऊँचे शिखरोंसे वह मन्दिर ऐसा मालूम होता था मानो स्वर्गका उन्मीलन ही कर रहा है-स्वर्गको भी प्रकाशित कर रहा हो ॥१८२॥ उस मन्दिरमें निरन्तर अनेक मुनियोंके समूह गम्भीर शब्दोंसे स्तोत्रादिकका पाठ करते रहते थे जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो वह आये हुए भव्य जीवोंके साथ सम्भाषण ही कर रहा हो ॥१८३॥ उसकी शिखरोंके अग्रभागपर लगी हुई तथा वायुके द्वारा हिलती हुई पताकाएँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो वन्दना भक्ति आदिके लिए देवोंको ही बुला रही हों॥१८४॥ उस मन्दिरके झरोखोंसे निकलते हुए धूपके धूम ऐसे मालम होते थे मानो स्वर्गको भेट देनेके लिए नवीन मेघांको ही बना रहे हों ॥१८५||उस मन्दिरके शिखरोंके चारों ओर जो चंचल किरणोंके धारक तारागण चमक रहे थे वे ऊपर आकाशमें स्थित रहनेवाले देवोंको पुष्पोपहारकी भ्रान्ति उत्पन्न किया करते थे अर्थात् देव लोग यह समझते थे कि कहीं शिखरपर किसीने फूलोंका उपहार तो नहीं चढ़ाया है ।।१८६।। वह चैत्यालय सवृत्तसंगत-सम्यक्चारित्रके धारक मुनियोंसे सहित था, अनेक चित्रोंके समूहसे शोभायमान था, और स्तोत्रपाठ आदिके शब्दोंसे सहित था इसलिए किसी महाकाव्यके समान सशोभित हो रहा था क्योंकि महाकाव्य भी. सदवृत्त-वसन्ततिलका आदि सन्दरसुन्दर छन्दोंसे सहित होता है, मुरज कमल छत्र हार आदि चित्रश्लोकोंसे मनोहर होता है और उत्तम-उत्तम शब्दोंसे सहित होता है ॥१८७॥ उस चैत्यालयपर पताकाएँ फहरा रही थीं, भीतर बजते हुए घण्टे लटक रहे थे, स्तोत्र आदिके पढ़नेसे गम्भीर शब्द हो रहा था, और स्वयं अनेक मजबूत खम्भोंसे स्थिर था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो कोई बड़ा हाथी ही हो गथीपर भी पताका फहसती है, उसके गले में मनोहर शब्द करता हुआ घण्टा बंधा रहता है। वह स्वयं गम्भीर गर्जनाके शब्दसे सहित होता है तथा मजबूत खम्भोंसे बँधा रहनेके कारण स्थिर होता है ।।१८८॥ वह चैत्यालय पाठ करनेवाले मनुष्यों के पवित्र शब्दों तथा वन्दना करनेवाले मनुष्योंकी जय जय ध्वनिसे असमयमें ही मयूरोंको मदोन्मत्त बना देता था अर्थात् मन्दिरमें होनेवाले शब्दको मेघका शब्द समझकर मयूर वर्षाके बिना ही मदोन्मत्त हो जाते १. आत्मानं दिवा मन्यत इति दिवामन्या ताम् । २. स्वर्गम् । ३. पश्यनिव। ४. संभाषणं कुर्वन् । ५. भव्यः सह । ६. वाह्वयन्त अ०स०। ७. तद्वाता-ल०। ८. निमिमीत इति निर्मिमाणा। ९. घना इव ल०। १०. संभ्रान्तिम् । ११. मातन्वन्ति नभोजुषाम् द.। १२. सच्चारित्रवद्भव्यजनसहितः, पक्षे समीचीनवृत्तजातिसहितः । १३. चित्रपुत्रिकासन्दर्भः, पक्षे चित्रार्थसन्दर्भरचना । १४. सुशब्दी। १५. भूमौ । १६. सम्यग् धृतः। २७. कुशीलवैः पक्षे चारणमुनिभिः । १८. पक्षे परिचयः । १९. शब्दागमपरमागमादिविद्याधरैः खचरैश्च ।।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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