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## Chapter 136 The learned woman, having paid homage to the Jina, spread out her scroll in the hall of the scroll and sat down, eager to test those who had come. Some, with great intelligence, looked at the scroll with care. Others, seeing it, exclaimed loudly, "What is this?" The learned woman answered them with appropriate words, her face adorned with a gentle smile, as she addressed the learned ones. Then the victorious wheel-turning king, having conquered all directions, returned, having vanquished all the enemies of knowledge, the demons. He then received the anointment of kingship from thirty-two thousand lords of the earth. What is not attainable through merit? He and they, though equal in form, with hands, feet, and faces, were yet unequal in merit, due to the power of his merit. His body was peerless, his face as gentle as the moon, his eyes like lotuses. By virtue of his merit, he surpassed all men and gods. On his feet shone the marks of the conch, discus, and goad, as if Lakshmi herself had inscribed these auspicious signs on the wheel-turning king. While this king, with his righteous rule, governed the earth, no one, even among those who had committed offenses, was punished. He carried Lakshmi on his chest and Saraswati on his lips, but he had no space to carry his own beloved fame, so he sent it alone to the end of the world.
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________________ १३६ आदिपुराणम् तत्र पट्टकशालायां पण्डिता कृतवन्दना । प्रसार्य पहकं तस्थौ परिचिक्षिपुरागतान् ॥१९॥ प्रेक्षम्त केचिदागस्य सावधानं महाधियः । कंचित् किमतदित्युच्चैः जजल्पुर्वीश्व पट्टकम् ॥१९२॥ तेषां समुचितैर्वाक्यैर्ददती पण्डितोत्तरम् । तत्रास्ते स्म स्मितोचोसः किरन्ती पण्डितायितान् ॥१९३॥ अथ दिग्विजयाच्चक्री न्यवृतत् कृतदिग्जयः । प्रवतीकृतनिःशेषमरविद्याधरामरः ॥१९॥ ततोऽभिषेकं द्वात्रिंशत्सहस्रधरणीश्वरैः । चक्रवर्ती परं प्रापत् पुण्यैः किं नु न लभ्यते ॥१९५॥ स च ते च समाकाराः करात्रिबदनादिमिः। तथापि तैः समभ्ययः सोऽभूत् पुण्यानुभावतः ॥१९६॥ . अनीशवपुश्चन्द्रसौम्यास्यः कमलेक्षणः। पुण्येन सबमी सर्वानतिशय्य नरामरान् ॥१९॥ शङ्खचक्राङ्कुशादीनि लक्षणाम्यस्थ पादयोः । बभुरालिखितानीव लक्ष्म्या लक्ष्माणि चक्रिणः ॥१९॥ अमोघशासने तस्मिन् भुवं शासति भूभुजि ।न दण्ज्यपक्षः कोऽप्यासीत् प्रजानामकृतागसाम् ॥१९॥ स बिभ्रद् वक्षसा लक्ष्मी वक्त्राम्जेन च वाग्वधूम् । प्रणाय्यामिव लोकान्तं प्राहिणोत् कीर्तिमेकिकाम् ॥२०॥ थे ॥१८९॥ वह चैत्यालय अत्यन्त ऊँचे-ऊँचे शिखरोंसे सहित था, अनेक चारण (मागध स्तुतिपाठक) सब उसकी स्तुति किया करते थे और अनेक विद्याधर (परमागमके जाननेवाले) उसको सेवा करते थे इसलिए ऐसा शोभायमान होता था मानो मेरु पर्वत ही हो क्योंकि मेरु पर्वत भी अत्यन्त ऊँचे शिखरोंसे सहित है, अनेक चारण ( ऋद्धिके धारक मुनिजन) उसकी स्तुति करते रहते हैं तथा अनेक विद्याधर उसकी सेवा करते हैं ॥१९०॥ इत्यादि वर्णनयुक्त उस चैत्यालयमें जाकर पण्डिता धायने पहले जिनेन्द्र देवकी वन्दना की फिर वह वहाँकी चित्रशालामें अपना चित्रपट फैलाकर आये हुए लोगोंकी परीक्षा करनेकी इच्छासे बैठ गयी ॥१९१॥ विशाल बुद्धिके धारक कितने ही पुरुष आकर बड़ी सावधानीसे उस चित्रपटको देखने लगे और कितने ही उसे देखकर यह क्या है ? इस प्रकार जोरसे बोलने लगे ॥१९२॥ वह पण्डिता समुचित वाक्योंसे उन सबका उत्तर देती हुई और पण्डिताभास-मुखे लोगोंपर मन्द हास्यका प्रकाश डालती हुई गम्भीर भावसे वहाँ बैठी थी ॥१९३॥ ___अनन्तर जिसने समस्त दिशाओंको जीत लिया है और जिसे समस्त मनुष्य विद्याधर और देव नमस्कार करते हैं ऐसा वदन्त चक्रवर्ती दिग्विजयसे वापस लौटा ॥१९४॥ उस समय चक्रवर्तीने बत्तीस हजार राजाओं द्वारा किये हुए राज्याभिषेकमहोत्सवको प्राप्त कियाथा सो ठीक ही है. पुण्यसे क्या-क्या नहीं प्राप्त होता?॥१९५॥ यद्यपि वह चक्रवर्ती और वे बत्तीस हजार राजा हाथ, पाँव, मुख आदि अवयवोंसे समान आकारके धारक थे तथापि वह चक्रवर्ती अपने पुण्यके माहात्म्यसे उन सबके द्वारा पूज्य हुआ था।॥१९६।। इसका शरीर अनुपम था, मुख चन्द्रमाके समान सौम्य था, और नेत्र कमलके समान सुन्दर थे। पुण्यके उदयसे वह समस्त मनुष्य और देवोंसे बढ़कर शोभायमान हो रहा था॥१९७। इसके दोनों पाँवोमें जो शंख, चक्र, अंकुश आदिके चिह्न शोभायमान थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो लक्ष्मीने ही चक्रवर्तीके ये सब लक्षण लिखे हैं ॥१९८॥ अव्यर्थ आशाके धारक महाराज वजदन्त जब पृथ्वीका शासन करते थे तब कोई भी प्रजा अपराध नहीं करती थी इसलिए कोई भी पुरुष दण्डका भागी नहीं होता था ॥१९९॥ वह चक्रवर्ती वक्षःस्थलपर लक्ष्मीको और मुखकमलमें सरस्वतीको धारण करता था परन्तु अत्यन्त प्रिय कीर्तिको धारण करने के लिए उसके पास कोई स्थान ही नहीं रहा इसलिए उसने अकेली कीर्तिको लोकके अन्त तक पहुँचा दिया था। अर्थात् लक्ष्मी और सरस्वती तो १. परीक्षितुमिच्छुः । २. प्रेक्ष्यन्ते. ब., स.। प्रेक्ष्यन्त म., ल.। ३. पण्डिता इवाचरितान् । ४. धरणीधरैः अ०, ५०, स., म., द०, ल.। ५. चिहानि। ६. दण्डयितुं योग्यो दण्ड्यः स चासो पक्षश्च । ७. असम्मताम् । 'पाय्यधार्यासन्नावनिकाम्बप्रणाय्यानाम्यं मानर्धाविनिवासासम्मत्यनित्ये' इति सूत्रात् बसम्मत्यर्षे ध्यणन्तनिपातनम् । प्राणाय्यमिव द.ल.।
SR No.090010
Book TitleAdi Puran Part 1
Original Sutra AuthorJinsenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2004
Total Pages782
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size27 MB
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