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दोहा
चिदानंद आनंदमय, सकति अनंत अपार । अपनो पद ज्ञाता लखे, जामें नहिं अवतार ||३१||
छप्पय सहज परम धन धरन, हरन सब करन भरममल। अचल अमल पद रमन, मन पर करि निज लहि थल।। अतुल अबाधित आप, एक अविनासी कहिये। परम महासुखसिंधु. जास गुण पार न लहिये।। जोती सरूप राजत विमल, देव निरंजन धरम धर। निहचे सरूप आतम लखे, सो शिवमहिला' होय वर' ।।३२ ।।
अथ बहिरात्मा कथन मुनिलिंग धारि महाव्रत को सधैया भयो, आप बिनु पाए बहु कीनी सुभकरणी। यतिक्रिया साधिके समाधि को न जाने भेद, मूढमति कहे मोक्षपद की वितरणी। करम की चेतना में सुभ उपयोग रीति, यह विपरीति ताहि कहे भवतरणी। ऐसे तो अनादि की अनंत रीति गहि आयो, क्रिया नहिं पाई ज्ञानभूमि' अनुसरणी।।३३।। सुभउपयोग सेती जैसे पुण्यबंध होय, पात्तर को दान दिये भोगभूमि जाइये। सतसंग सेती जैसे हित को सरूप सधे, थिरता के आए जैसे ज्ञान को बढ़ाइये। १ मुक्ति रूपी रमणी,२ वरण करने वाला,३ देने वाली, ४ स्वसंवेदनगम्य आत्मानुभूति, ५ से. के द्वारा, ६ सुपात्र
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