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ज्ञान की सकति महा गुपति भई है तोऊ, ज्ञेय की लखैया जाकी महिमा अपार है। प्रतच्छ प्रतीति में परोक्ष कहो कैसे होई, चिदानंद चेतना को चिन्ह अविकार है। परम अखंड पद पूरन विराजमान, तिहुंलोक नाथ किए निहचे विचार है। अखैपद' यो ही एक सासता निधान मेरे. ज्ञान उपयोग में सरूप की संभार है ।।२०।। बहु विसतार कहु' कहां लों बखानियतु, यह भववास जहां भाव की असुद्धता। त्यागि गृहवास है उदास महाव्रत धारें, नहिं विपरीति जिनलिंग मांहि सुद्धता। करम की चेतना में शुभ उपयोग सधे, ताही में ममत' ताके तारौं नाहीं सुद्धता । वीतराग देव जाको यो ही उपदेश महा, यह मोखपद जहां भाव की विशुद्धता 1।२६ || ज्ञान उपयोग जोग जाको न वियोग हूवो, निहचे निहारे एक तिहुंलोक भूप है। चेतन अनंत चिन्ह सासतो विराजमान, गति-गति भम्यो तोऊ अमल अनूप है। जैसे मणि मांहि कोऊ काचखंड माने तोऊ, महिमा न जाय वामें वाही का सरूप है। ऐसे ही संभारिके सरूप को विचारयो मैने, अनादि को अखंड मेरो चिदानंद रूप है।।३०।।
१ अक्षय. अखण्ड पद, २ को. ३ ममत्व, मेरे पन की बुद्धि, ४ मोक्ष. ५ भ्रमण किया, ६ तब भी. ७ उस में, ८ उसी का