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को सम्यक्तप्रमेय न आवने दे। ऐसे अनंत गुणविकार को अनंत गुण प्रमेय न आवने दे। एक यतीपद प्रमेय ने धर्या, तातें विकारता प्रमेय ने हरी, तातै यती' प्रमेय को कहिये । प्रमेय ज्ञान का तामें अनंतज्ञान आया, तातैं मुनि प्रमेय को कहिये। सब गुण को ज्ञान प्रत्यक्ष किया, ज्ञान प्रमेय में ज्ञान; तातै प्रमेय मुनि भया ।
ऐसे ज्ञानगुण को च्यारि भेद कहिये है
ज्ञान को रिषि संज्ञा काहे ते भई सो कहिये है-ज्ञान आपणां जानपणा का स्वसंवेदन विलास लिये है। ज्ञान के जानपणा है, तातें आप को आप जाने है। आप के जाने आप सुद्ध है । अानंदअमृतवेदना ज्ञानपरणति द्वारा ते आप ही आप आप में अनाया रसास्वादु ले हैं; जिसके उपचार मात्र में ऐसा कहिये। ज्ञान में तिहूं काल संबंधी ज्ञेयभाव प्रतिबिंबित भये सवज्ञता भई । लोकालोक असद्भूत उपचार करि ज्ञान में आये। ज्ञान अपने सुभाव करि थिर है, जुगप्त है, अखण्ड है, सासता है, आनन्दविलासी है. विशेष गुण है, सब में प्रधान है। अपने पर्याय मात्र करि अनन्त पदार्थ का भासक है। वीर्यगुण दर्शन को निराकार निहपन्न राखवे की सामर्थ्यता धरे। ज्ञान निहपन्न राखवे की सामर्थ्यता धरे । प्रमेय निहपन्न राखवे की सामर्थ्यता धरे । प्रदेश निहपन्न राखवे की सामर्थ्यता धरे। सब द्रव्य, गुण, पर्याय निहपन्न राखवे की सामर्थ्य धरे। सो जो ज्ञान न होता, तो ऐसे वीर्य की सकल अनन्तशक्ति, अनन्त-पर्याय, अनन्त नृत्य, थट- कला रूप सत्ताभाव, रस-तेज, आनन्द, प्रभावादि अनन्त भेदभाव को न जानता । जब न जाने, तब देखना न होता। देखना न भये. अद्रसि' (अदृश्य) भया। जब अद्रश्य भया, तब अभाव होता। तातें ऐसे वीर्य को ज्ञान ही प्रगट करे है अरु प्रदेश १ निर्विकार साधु, २ ला कर, उपयोग लगा कर, ३ युगपत, एक साथ