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अगुरुलघु तैं सब सिद्धि भई । यह सब सिद्धि करने की रिद्धि अगुरुलघु लिये है । अनन्त गुण, द्रव्य, पर्याय की सिद्धि अगुरुलघु नेकीनी । तातैं ऐसी रिद्धि का धारक अगुरुलघुगुण रिषि कहिये ।
आगे अगुरुलघु को साधु कहिये
यह अगुरुलघु सब को साधे है, तातैं साधुसंज्ञा भई । वृद्धि-हानि ते गुण जैसे के तैसे रहे, तब न हलके होय न भारी होय । तब सब का साधक भया, तब साधु कहिये । आप को आप की परणति ते साधे, साधु है।
आगे अगुरुलघु को यति कहिये है
हलका - भारी विकार जीति अपने सुभाव (में) निवसे है। जो हलका होता, तो पवन में उड़ता, भारी होता तो अधोपतन होता, तातैं ऐसे विकार का अभाव करि आपकी यति' वृत्ति आप प्रगट करी । आप के विकार मेटे और गुण के विकार मेटे । यति आप का विकार मेटे, पर का विकार मेटे, तातें यति संज्ञा अगुरुलघु को कहिये ।
में ज्ञान
आगे अगुरुलघु को मुनिसंज्ञा कहिये हैआप को आप प्रतक्ष करे, ज्ञान का अगुरुलघु प्रतक्ष आया, तब अगुरुलघु प्रतक्ष ज्ञान का धारी भया, प्रतक्षज्ञानी को मुनिसंज्ञा है । तातैं मुनि अगुरुलघु को मुनि कहिये । च्यारि भेद अगुरुलघु में भये ।
तातैं
आगे प्रमेय' को च्यारि भेद लगाइये है सो कहिये हैप्रमेयत्व ने सबको प्रमाण कहवे जोग्य किये है। द्रव्य प्रमाण करवे जोग्य गुण प्रमाण करवे" जोग्य' पर्याय प्रमाण जोग्य १ मुद्रित पाठ "जती है, २ प्रमाण करने योग्य, ज्ञान का विषय, ३ करने, ४ योग्य २१