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रूप, तामें रहणा सो वानप्रस्थ, तातैं ज्ञान अपने जानपना रूप रहे। दरसन अपने द्रश्य चेतना रूप में स्थिति किये है। सत्ता सासता" लक्षण रूप में सदा विराजे है । प्रमेय अपने प्रमाण करवे जोग्य रूप में अवस्थान करे है। या प्रकार सब गुण अपने निज रूप रहे हैं। ज्ञान का निज वा ऐसा है। विशेष जाणन प्रकाश रूप भया है, अरु आप आप में जाननरूप परणया है। अपने जानन तैं अपनी सुद्धता भई । सरूप सुद्ध के भये सहज ज्ञायकता के विलास ने अनंत निज गुण का प्रकाश विकास्या, तब गुण गुण के अनंत परजाय भेद सब भासे, अनंत शक्ति की अनंत महिमा ज्ञान में प्रगट भई ।
इहां कोई प्रश्न करे
ज्ञेय प्रकाश ज्ञान में भया, उपचार तैं जानना है, अपने गुण का जानना कैसे है?
ताका समाधान
पर ज्ञेय का सत जुदा है, निज गुण का सत ज्ञान के सत सों जुदा नाहीं । ज्ञान की ज्ञायकता के प्रकाश में एक सत जाया गया है। जो उपचार होय, (तो) विनके जाने आनंद न होइ । (प्रश्न) आनंद होइ है, तो गुण विषै गुण उपचार क्यों । कह्या? तहां समाधान - ज्ञान में दरसन आया सो ज्ञान दरसन रूप न भया, काहे तैं उसका देखना लक्षण सो ज्ञान में न होय । वीर्य का निहपति करण सामर्थ्य लक्षण ज्ञान में न होय । ऐसे अनंत गुण के लक्षण ज्ञान न धरे, तातैं लक्षण अपेक्षा उपचार, लक्षण विनके न धरे । अरु आये ज्ञान में कहे, तातैं उपचार सत्ता-भेद नाहीं । अनन्य (अन्यत्व) भेद तैं ज्ञानसत; दरसनसत;
१ अविनाशी, शाश्वत २ स्थिति ३ स्वरूप, ४ से ५ भिन्न, अलग, ६ उनके ७ निष्पत्ति, रचना, ८ करना
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