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वीर्यसत; सुखसत; ऐसा कलपि करि' भेद कह्या, परि' पृथक भेद नाहीं। तातें भेदाभेद विशेष सत लक्षण की अपेक्षा करि जानिये। ज्ञान द्रला गुण-पर्याय निण सरूः को जाने; ज्ञान ज्ञानको जाने, तहां आनंद अमृत-रस-समुद्र प्रगटे। सब द्रव्य-गुण-पर्याय ज्ञान प्रकाशे तब प्रगटे। ज्ञान ने विनकी' महिमा प्रगट करी, ता” ऐसा ज्ञान सरूप ज्ञानवान है. तामें ज्ञान रहे तब ज्ञान वानप्रस्थ कहिये । दरसनवान दरसन रूप सो सब द्रव्य-गुण-पयार्य ज्ञान प्रकाशे तब प्रगटे। ज्ञान ने विनकी महिमा प्रगट करी, तातें ऐसा सरूप ज्ञानवान है. तामें ज्ञान रहे तब ज्ञान वानप्रस्थ कहिये। दरसनवान दरसन रूप सो सब द्रव्य-गुण-पर्याय का सामान्य-विशेषरूप वस्तु का निर्विकल्प सत अवलोकन करे है। तहां सब लक्षण भेदाभेद, उपचारादि रीति ज्ञान की नाई जानि लेणी। आनंद का प्रवाह निज अवलोकनि तैं होय है। निर्विकल्परस में भेदभाव विकल्प सब नहीं. निर्विकल्परस ऐसा है; तहां विकल्प नहीं। प्रश्न इहां उपजे है
जो दरसन दरसन को देखे सो तो निर्विकल्प ज्ञानादि अनंतगुण अवलोकन में विकल्प भया कि निरविकल्प रह्या? जो निरविकल्प कहोगे, तो पर दूजा गुण का दूजा लक्षण के देखवे करि निरविकल्प न रह्या, अरु विकल्प कहोगे, तो निरविकल्प दरसन कहना न संभवेगा। ताका समाधान
ज्ञेय का देखना तो उपचार करि वामें आया। दरसन में और गुण दरसन बिना जो देखे. लक्षण करि तो उपचार सब के लक्षण देखे। सत्ता अभेद है ही, अनन्य भेद, पृथक् भेव १ कल्पना करके २ किन्तु. ३ मिन्न, अलग. ४ उसकी, ५ समान, ६ उसमें