________________ अर्थ-तब तक पंचपरमेष्ठी की सेवा करता है, जब तक निजपद की सेवा नहीं करता। निजपद की सेवा होते ही स्वयं पंचपरमेष्ठी देव है। पंच पद विचारत ध्यावतें, निजपद की शुद्धि होत। निजपद शुद्धि होवतें निजपद भवजल-तारण पोत।।३६।। अर्थ- पांच पदों को विचारने और ध्यान करने पर निजपद की शुद्धि होती है। निजपद की शुद्धि होने पर निजपद मव-जल से पार होने के लिये जहाज के समान है। हूं ज्ञाता द्रष्टा सदा, हूं पंचपद त्रिभुवन सार। हूं ब्रह्म ईश जगदीशपद, सो हूं के परचें हूं पार / / 37|| अर्थ-मैं सदा ज्ञाता हूं, दृष्टा हूं। मैं तीन लोक में सार पंचपद (परमेष्ठी) हूं। मैं ब्रह्मा, ईश्वर और जगदीश स्वरूप हूं। सोहं का परिचय होते ही भवोदधिसे पार होता है। इति श्रीआत्मावलोकनस्तोत्रम्। 178