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पर अवलंबन दुःख है, स्व अवलंबन सुखरूप। यह प्रगट लखाव पहचान के, अवलंबियो सुख-कूप ।।३१।।
अर्थ-पर अवलंबन दुःखरूप है और स्व अवलंबन सुखरूप है। यह प्रगट देखकर और लक्षण से पहिचान-कर सुख- कूप (स्रोत) का अवलंबन करना चाहिये।
यावत तृष्णारूप है, तावत मिथ्या-भ्रम-जाल। ऐसी रीति पिछानिके, लहिये सम्यग् विरति चाल।।३२।।
अर्थ-जब तक तृष्णारूप है, तब तक मिथ्या भ्रमजाल है। ऐसी रीति पहचानकर सम्यक् विरति ग्रहण करना चाहिये।
पर के परिचय धूम है, निज परिचय सुख चैन। यह परमारथ जिन कह्यो, उस हित की करी जु सैन । ३३ ।।
अर्थ-पर के परिचय से आकुलता है और निज के परिचय से सुख-चैन (शान्ति) है। जिनेन्द्रदेव ने यह परमार्थ कह कर उस हित (आत्महित) का संकेत किया है।
इस धातुमयी पिंडमयी रहूं हूं अमूरति चेतन बिम्ब । ताके देखत सेवतें रहे पंचपद प्रतिबिम्ब।।३४।।
अर्थ--इस धातुमयी पिंड में मैं अमूर्तिक चेतन बिम्ब रहता हूं। उसके देखने और सेवन करने में पाचों परमपद प्रतिबिंबित होते हैं।
तब लग पंचपद सेवना, जब लग निजपद की नहीं सेव। भई निजपदकी सेवना, तब आपे आप पंच पद देव ।।३५ ।।
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