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लहे न स्वरूप की समाधि सुख भावना । चेतन विचार ताको जोग काहू समै जुरे, ताहू समै करे और मन की उपावना' ।। केतक ही काजि के उपाय के उपाय करे, कामिनी के काज में हजारों धन लावना | साधरमी हेतु हित नेक न लगावे मूढ, पाप पंथ पग्यो भव - भांवरि बढावना । ॥७४॥। दुर्लभ अनादि सतसंग है स्वरूप भाव, ताको उपदेश कहुं दुर्लभ कहीजिये । चरचा - विधान ते निधान निज पाइयत, होय के गवेषी तहां तामें मन दीजिये ।। इर्ष्या किये ते बंध पड़े ज्ञानावरणी को, गुण के गहिया' ह्वै के ज्ञानरस पीजिये । जाको संग किये महा स्वपद की प्राप्ति हवै, सो ही परमातमा सही सों लख लीजिये ।। ७५ ।।
जाके संग सेती महा स्वपर विचार आये, स्वपद बतावे एक उपादेय आप हैं । गुण को निधान भगवान' पावे घट ही में, ताके संग सेती दूर होय भवताप है ।। ताके संग सेती शुद्धि सिद्धि सो स्वरूप जाने, धन्य-धन्य जाको जाके संग सों मिलाप है । ऐसो हू कथन सुणि क्रूर जो कुचरचा करें, भव अधिकारी मूढ़ बांधे अतिपाप है ।। ७६ ।। | एक परमपद दूजो देखे परपद को है,
१ उपयोग लगाना, २ मुद्रित पाठ है- कतक के कितने ही, ३ पड़ता है, ४ ग्राहक, ५ हो कर ६ भगवना आत्मा ७ सुन कर परम पद, मुद्रित पाठ 'परपद' है।
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