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वांछित देवे को सुरतरु अमलान है। जगत के प्राणिन को शुद्ध करिये को. जैसे लोह को करे पारस पाखान' है । ७० ।।
दोहा
नवनिधि अरु चउदह रतन, नाम समान न कोय । नाम अमर पद को करे, जहां अतुल सुख होय । । ७१|| सवैया
माया ललचाय यह नरक को वास करे, ताके वशि मूढ जिनधर्म को भुलाय है ! अति ही अज्ञानी अभिमानी भयो डोलत है पारेर अंध फंदर हिये हित नहीं आय है ।। चेतन की चरचा में चित कहुं लावे नाहिं,' ख्याति-पूजा - लाभ महा ये ही मन भाय है ! पर अनुराग में न जाग है स्वरूप की है, बहिर्मुख भयो बहिरातम कहाय है । । ७२ ।। ग्रंथ को कहिया ताको आप ढिग राख्यो चाहे, ताका अपमान भये दोष न अनाय' है। ताके हांसि भये जिन मारग की हांसि हवै है, ऐसों विवेक नेक हिये नहीं थाय है ।। माया अभिमान में गुमान कहुं भावे नाहिं, बाहिज की दृष्टि सों तो बाहिज लगाय है 1 धरम उद्योत जासो कहा कैसे बणि आवे, झूठ ही में पग्यो सांचो धरम न पाय है। १७३ || गुण को न गहे मान अति अन्यत्र चहे,
१ पारसमणि (लोहे को सोना बना देने वाली मणि), २ डालता है. ३ फन्दा (राग-द्वेष ). ४ नहीं, ५ लाता है, ६ उसकी, ७ हँसी, ५ थोड़ी ६ बहिर्मुखी दृष्टि, ५० बाहर
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