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देखे सो स्वपद दीसे सो ही सब पर है। - ऐसे भेद-ज्ञान सों निधान निज पाइयत, - चेतन स्वरूप निज आनंद को घर है।। I. चौरासी लाख जोनि जाम' जनमादि दुख, ।। सहे ते अनादि ताको मिटे तहां डर है। 14 तिहुलोक पूज्य परमातमा वै निवसे है,
। तहां ही कहावे शिवरमणी को वर है। ७७।। |, केऊ कूर' कहें जग-सार है स्वपद महा, ।। ऐसा कहें परि सदा मलान ही रहतु हैं। | कामिनी कुटंब काजि लाखन लगाय देत, || स्वपद बताये ताको हित न चहतु हैं। || नेक उपकार सार संत नहीं विसरे हैं, ।। ऐसो उपकार भूले कहत महंतु हैं ।। । जाकी बात रुचि सेती सुणे शिवथान होय, || जीके धन्य जाको अनुराग सों कहतु हैं।७८, || || तीरथ में गये परिणाम सुद्ध होय नाहि, || सतसंग सेती स्वविचार हिये आवे है। || ऐसो सतसंग परंपरा शिवपद दाता,
तिन हूं सो महामूढ़ मान को बढ़ावे है।। लक्ष्मी हुकम लखि मन मांहि धारें मद, ऐसे मदधारी नाही निज तत्त्व पावे है। आतम की आप कोड बात कहे राग सेती, धन्य सो वारिघन तिन ऊपरि सुहावे है ! १७६ ।। नेक उपकार करे संत ताहि मूले नाहि, १ चैतन्य स्वभाव, २ मूर्ख, अज्ञानी, ३ मुद्रित पाठ है-परिवूफदु); किन्तु सदा प्लान (शोकाकुल) रहते हैं, ४ सुनने घर. ५ करोड़, ६ ओस, ७ मुद्रित पाठ है- परिब गावे
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