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नैक' निज ओर देखे शिवपुरीराज पावे, आनंद में वेदि-वैदि' सासता रहावना । ।३२ ।। सहज बिसार्यो तैं संभार्यो परपद यातें, पायो जगजाल में अनंत दुख भारी है।। आजु सुखदायक स्वरूप को न भेद पायो, अति ही अज्ञानी लागे परतीति' प्यारी है।। परम अखंड पद करि तू संमार जाकी, तेरो है सही सो सदा पद अविकारी है। कहे 'दीपचंद' गुणवृंदधारी चिदानंद, सो ही सुखकंद लखे शिव अधिकारी है।।३३।।
दोहा विविध रीति विपरीति हैं, याही समै के माहि। धरम रीति विपरीत कुं, मूरख जानत नांहि ||३४ ||
सवैया केऊ तो कुदेव माने देव को न भेद जाने, केऊ शठ कुगुरु को गुरु मानि सेवे हैं। हिंसा में धरम केऊ मूढ जन मानतु हैं. धरम की रीति-विधि मूल नहीं बैठे हैं। केऊ° राति पूजा करि प्राणिनि को नाश करें, अतुल असंख्य पाप दया बिनु लेवे हैं।। केऊ मूढ लागि मूढ अबै ही न जिनबिंब, सेवे बार-बार लागे पक्ष करि केवे हैं । ।३५ ।। सुत परिवार सों सनेह ठानि बार-बार, १तनिक, थोड़ा, २ बारम्बार आत्मानुभव कर. ३ अविनाशी, नित्य, ४ श्रद्धा. ५ सम्यक. ६ पंचम काल. ७ कुछ लोग, ५ रात्रि में. ६ देवमूढ़ता के लिए, १० कहते है
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