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भूलि तैं अनादि दुख पाये सो तो निवरी' है, सहज संभारि अब श्रीगुरु बखान्यो है || २६ ।। आतम करम संधि सूक्षम अनादि मिली. जामें अति पैनी बुद्धि छैनी महा मारी है । शुद्ध चिदज्योति में स्वरूप को सथाप्यो यातैं, स्वपर की दशा सब लखी न्यारी-न्यारी है। जान्यो, ज्ञायक प्रभा में निज चेतना प्रभुत्व अविनासी आनंद अनूप अविकारी है। कृतकृत्य जहां कछु फेरि नहीं करणो है, सासता पद में निधि आपकी संभारी है । । ३० ।। करी तैं अनादि क्रिया पायो न स्वरूप भेद, परभाव मांहि न है सहज की धारणा 1 आप को स्वभाव वण्यो महा शुद्ध चेतना में, केवल स्वरूप लखि करि के संभारणा* । । सुपददशा के लखें सुगम स्वरूप आप, ऐसा तो भला देखि समझि विचारणा । आनंदस्वरूप ही में पर ओर कहा देखे आप ओर आप देखि होय ज्यों उधारणा' ।। ३१ ।। तू ही चिनमूरति अनूप आप चिदानंद,
तू ही सुखकंद कहा करे पर भावना | तेरे ही स्वरूप में अनंतगुण राजतु हैं, जिन को संभारि बढ़े तेरी ही प्रभावना 11 तू ही पर भावन में राखि के अनादि दुखी, भयो जति डोले संकलेश जहां पावना ।
१ बीत चुके २ स्थापित किया. ३ तुमने की है. ४ सम्हाल, स्वरूप की सावधानी, ५ कैवल्य ६ पूर्ण रूप से प्रकट करना. उघाड़ना,
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