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अडिल्ल
तुम देवन के देव कही भव-दुख भरो। सहजभाव उर आनि राज शिव को करो ।। जहां महाथिर होय परम सुख कीजिये । चिदानंद आनंद पाय चिर जीजिये || || पर परणति को धारि विपति भव की भरी। सहजभाव को धारि शुद्धता ना करी ।। अब करिके निजभाव अमर आपा करो । अविनासी आनंद परम सुख को करो | | ८६ ।। सकल जगत के नाथ सेव क्यों पर करो । अमल आप पद पाय ताप भव परिहरी 11 अतुल अनूपम अलख अखंडित जानिये ! परमातम पद देखि परम सुख मानिये । । ६० ।। सही जानि सुखकंद द्वंद दुख हारिये । चिनमय चेतन रूप आप उर धारिये ।। पर परणति को प्रेम अबै तज दीजिये । परम अनाकुल सदा सहज रस पीजिये । । ६१।।
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छप्पय
सहज आप उर आनि अमल पद अनुभव कीजे ! ज्योति स्वरूप अनूप परम लहि निजरस पीजे || अतुल अखंडित अचल अमितपद है अविनासी । अलख एक आनंद कंद है नित सुखरासी ।।
सो ही लखाय थिर थाय के उल्हसि - उल्हसि आनंद करे । कहि दीपचंद गुणवृंद लहि शिवतिया के सुख सो वरे । । ६२ ।। १ आप, आत्मा, २ सेवा. ३ दूर कीजिए, ४ चिन्मय, चैतन्य ५ असीम, ६ बहुत उल्लसित हो कर, ७ मोक्ष- लक्ष्मी
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