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स्वसंवेद ज्ञान उपयोग में अनंत सुख, अतिंद्री अनूपम है आप का लखावना । भव के विकार भार कोऊ नहीं पाइयतु, चेतना अनंत चिन्ह एक दरसावना। ऐसी अविकारता सरूप ही में सासती है, सदा लखि लोजे तातै सिद्धपद पावना । आतमीक ज्ञान मांहि अनुभौ विलास महा, यह परमारथ सरूप का बतावना ।।१७१।। ज्ञान गुण जाने जहां दरसन देखतु है, चारित सुथिर है सरूप में रहतु है। वीरज अखंड वस्तु ताको निहपन्न' करे, परम प्रभाव गुण प्रमुता गहतु है। चेतना अनंत व्यापि एक चिदरूप रहे, यह है विभूत' ज्ञाता ज्ञान में लहतु है। महिमा अपार अविकार है अनादि ही की, आप ही में जाने जेई जग में महतु है ।।१७२।। सहज अनूप जोति परम अनूपी महा, तिहुँलोक भूप चिदानंद-दशा दरसी। एक सुद्ध निहचे अखंड परमातमा है, अनुभौ विलास भयो ज्ञानधारा बरसी। अपनो सरूप पद पाए ही तैं पाई यह, चेतना अनंत चिन्ह सुधारस सरसी, अतुल सुभाव सुख लह्यो आप आप ही में, याही तें अचल ब्रह्म पदवी को परसी ।।१७३ ।। अरूझिा अनादि न सरूप की सँभार करी, १ निष्पन्न करता है, २ विभूति. विभुत्व ३ स्पर्श किया ४ उलझन.
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