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पर पद मांहि रागी भए पग-पग में। चहुँ गति मांहि चिर दुःखपरिपाटी सही, सुख को न लेश लयो भम्यो' अति जग में। गुरुउपदेश पाय आतम सुभाव लहे. सुद्धदिष्टि देहे सदा सांचे ज्ञान-नग में। महिमा अपार सार आपनो सरूप जान्यो, तेई सिवसाधक है लागे मोक्ष-मग में।।१७४।। ज्ञानमई मूरति में ज्ञानी ही सुथिर रहे, करे नहीं फिरि कहुं आन की उपासना। चिदानन्द चेतन चिमतकार चिन्ह जाको, ताको उर जान्यो मेटी भरम की वासना। अनुभौ उल्हास में अनंत रस पायो महा, सहज समाधि में सरूप परकासना। बोध-नाव बैठि भव-सागर को पार होत, शिव को पहुंच करे सुख की विलासना ।।१७५|| ब्रह्मचारी गृही मुनि क्षुल्लक न रूप ताको, क्षत्री वैस्य ब्राह्मण न सुंदर सरूप है। देव नर-नारक न तिरजग रूप जाको, वाके रूप मांहि नाहिं कोऊ दौरधूप है। रूप रस गंध फास" इन ते वो रहे न्यारो, अचल अखंड एक तिहुंलोक भूप है। चेतनानिधान ज्ञानजोति है सरूप महा, अविनासी आप सदा परम अनूप है ।।१७६।। विधि न निषेध भेद कोऊ नहीं पाइयतु,
५ घूमा, भ्रमण किया, २ शुद्ध नय की दृष्टि ३ मुक्ति, मोक्ष. ४ वैश्य. महाजन, ५ तिर्यच, ६ दौडधूप, छ स्पर्श
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