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तोऊ भेद-भाव रूप नहीं विसतरे है। करता, करम, क्रिया भेद नहीं भासतु है. अकर्तृत्व सकति अखंड रीति धरे है। याही के गवेषी' होय ज्ञान मांहि लखि लीजे, याही की लखनि' या अनंत सुख मरे है ।।१४८|| करम संजोग भोग भाव नाहिं भासतु है, पद के विलास को न लेस पाइयतु है। सकल विभाव को अभाव भयो सदाकाल, केवल सुभाव सुद्धरस भाइयतु है। एक अविकार अति महिमा अपार जाकी, सकति अभोकतरि महा गाइयतु है। याही में परम सुख पावन सधत नीके, याही के सरूप मांहि मन लाइयतु है।।१४६ ।। पर है निमित्त ज्ञेय ज्ञानाकार होत जहां, सहज सुभाव अति अमल अकंप है। अतुल अबाधित अखंड है सुरस जहां, करम कलंकनि की कोऊ नहीं झंप है। अमित अनन्त तेज भासत सुभाव ही में, चेतना को चिन्ह जामें कोऊ की न चम्प है। परिनाम आतम सुसकति कहावत है, याके रूप मांहि आन आवत न संप है ।।१५०।। काहू काल मांहि पररूप होय नहीं यह, सहज सुभाव ही सो सुथिर रहतु है। आन काज कारण जे सबै त्यागि दिए जहां, १अन्वेषक, खोजी.२ आत्मानुभूति, ३ लोश. रंच मात्र, ४ अभोक्तृत्व शक्ति. ५ आवरण, ६ दबाव, चौंप. ७ परिणाम शक्ति, ८ झलक. ६ अन्य के आकार, १० अकार्यकारणत्व
शक्ति
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