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कोऊ परकार पर भाव न चहतु है। याही तें अकारण अकारिज सकति ही को. अनादिनिधन श्रुत ऐसे ही कहतु है | पर की अनेकता उपाधि मेटि एकरूप, याको उर जाने तेई आनन्द लहतु है।।१५१।। अपने अनन्त गुण रस को न त्यागि करे, परभाव नहीं धरे सहज की धारणा। हेय-उपादेय भेद कहो कहां पाइयतु, वचनअगोचर में भेद न उचारणा । त्याग उपादान सून्य सकति' कहावे यामें, महिमा अनन्त के विलासका उघारणा'। केवली-सकत-धुनि रहस रसिक जे हैं, याको भेद जाने करे करम निवारणा ।।१५२ ।।
दोहा गुण अनन्तके रस सबै, अनुभौ रसके मांहि। यातें अनुभौ सारिखो, और दूसरो नाहिं।।१५३ ।। पंच परम गुरु जे भए, जे हैंगे जगमाहि। ते अनुभौ परसाद ते, यामें धोखो नाहिं ।।१५४ ।।
सवैया ज्ञानावरणादि आठकरम अभाव जहां। सकल विभाव को अभाव जहां पाइये। औदारिक आदिक सरीर को अभाव जहां, पर को अभाव जहां सदा ही बताइये। याही ते अभाव यह सकति बखानियतु,
१ त्यागोपादानशून्यत्व शक्ति, २ व्यक्त, प्रकट करना, ३ सर्वज्ञदेव की दिव्यध्वनि, ४ होंगे. ५ अभाव शक्ति
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