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अविनासी सुधारस पीवें अविकारी हैं। चेतना विलास को प्रकास सो ही सार जान्यो, अनुभौ रसिक हदै सरूप के सँभारी हैं। कहे 'दीपचन्द' चिदानंद को लखत सदा, ऐसे उपयोगी आप पद अनुसारी हैं ।।१४५।। अलख अखंड जोति ज्ञान को उद्योत लिए, प्रगट प्रकास जाको कैसे हवै छिपाइये। दरसन-ज्ञानधारी अविकारी आतमा है, ताहि अवलोकि के अनंत सुख पाइये। सिवपुरी कारण निवारण सकल दोष, ऐसे भाव भए भवसिंधु तिरि जाइये। चिदानंद देव देखि वाही में मगन हजे, याते और भाव कोउ ठौर न अनाइये' | १४६ ।। करम के बंध जामें कोउ नाहिं पाइयतु, सदा निरफंद' सुखकंद की धरणि है। सपरस रस गंध रूप ते रहत सदा, आतम अखंड परदेस' की भरणि है। अक्ष सों अगोचर अनंत काल सासती है, अविनासी चेतना की होय न परणि है। सकति अमूरती बखानी वीतरागदेव, याके उर जाने दुखदंद की हरणि है। १४७ । । कर्म करतूति ते अतीत है अनादि ही की, सहज सरूप नहीं आन भाव करे है। लक्षन सरूप की. नै लक्षन लखावत है, १ अपना उपयोग अन्य स्थान पर नहीं लगाइये, २ राग-ट्वेष के द्वन्द्वों से रहित, ३ अखण्ड प्रदेश. ४ इन्द्रियातीत, ५ परिणमावना, अन्य के द्वारा परिणमन, ६ अमूर्तत्व शक्ति. ७ नय. कथन-पद्धति, एकदेश प्रमाण
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