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भले बुरे भावनि में कीजे समभाव जहां, सामायिक भेद षट् यह लखि लीजिये। १०३।। करम कलंक लगि आयो है अनादि ही को, यातें नहिं पाई ज्ञानदृष्टि परकाशनी'। मति गति मांहि परजाय ही को आपो मान्यो, जानी न सरूपकी है महिमा सुभासनी। रंजक' सुभाव सेती नाना बंध करे जहां, परि परफंदा थिति कीनी भववासनी। भेदज्ञान भये ते सरूप में संभारि देखी, मेरी निधि महा चिदानंद की विलासनी।।१०४ ।। महा रमणीक ऐसो ज्ञान जोति मेरो रूप, सुद्ध निज रूप की अवस्था जो पर है। कहा भयो चिर सों मलीन हैके आयो तोऊ निहचे निहारे परभाव न करतु है। मेघ घटा नभ माहि नाना मांति दीसतु है, घटा सों न होय नभ शुद्धता वरतु है। कहे 'दीपचंद’ तिहुँलोक प्रभुताई लिए. मेरे पद देखे मेरो पद सुधरतु है।।१०५।। काहे परभावन में दौरि-दौरि लागतु है, दसा परभावन की दुखदाई कही है। जन माहि दुख परसंग ते अनेक सहे. ताः परसंग तोको त्याग जोगि सही है। पानी के विलोए कहु पाइये घिरत नाहि, कांच न रतन होय ढूंढ़ो सब मही है। १ सामायिक के छह भेद हैं. २ प्रकाशित करने वाली, ३ भलीभाँति प्रकाशित होने थाली. ४ राग करने वाले, ५ स्वमाद से, ६ मोड़ के फन्दै में पड़ कर.७ मुद्रित पाठ है-भय मैं.. हो कर. ६ तो भी, १० राग, द्वेषादि भाव, ११ रिलोने पर, १२ घी
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