________________
याते अवलोकि देखि तेरे ही सरूपकी स. महिमा अनंतरूप महा बनि रही है। ।१०६ ।। भेदज्ञानधारा करि जीव पुदगल दोउ, न्यारा-न्यारा लखि करि करम विहंडनी'। चिदानंद भाव को लखाव दरसाव कियो, . जामें प्रतिभासे थिति सारी ब्रहमंडनी'। करम कलंक पंक परिहरि पाई महा, सुद्धज्ञानभूमि सदा काल है अखंडनी। तेई समकिती हैं सरूप के गवेषी जीव, सिवपदरूपी कीनी दसा सुखपिंडनी। १०७ ।। आप अवलोकनि में आगम अपार महा, चिदानंद सुख-सुधाधार की बरसनी। अचल अखंड निज आनंद अबाधित है, जाकी ज्ञान दशा शिवपद की परसनी। सकति अनंत को सुभाव दरसावे जहां, अनुभौ की रीति एक सहज सुरसनी । धनि ज्ञानवान तेई परम सकति ऐसी, देखी हैं अनंत लोकलोक की दरसनी ||१०८|| तत्त्व सरधान करि भेदज्ञान भासतु है, जाते परंपरा मोक्ष महा पाइयतु है। तत्त्व की तरंग अभिराम आठो जाम उठे, उपादेय मांहि मन सदा लाइयतु है। चिंतन सरूप को अनूप करे रुचि सेती, ग्रंथन में परतीति जाकी गाइयतु है।
१ विनाश करने वाली, २ ग्रह्माण्ड, विश्व की. ३ मुक्ति का स्पर्श करने वाली, ४ ज्ञानानन्द रस से युक्त, ५ देखने वाली, ६ सुन्दर, ७ लगाते हैं, ८ रुचि पूर्वक
८७