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सवैया गुणपरजाय जुत' द्रव्य जीव जाके गुण, है अनंत परजाय पर परिणती है। परमाणु द्रव्यरूप सपरस रस गंध, गुण परजाय षट्वृद्धिहानिवती है। गति थिति हेतु द्रव्य गतिथिति गुण परजाय वृद्धि हानि धर्म अधर्म थितिगति' है।। अवगाह वरतना हेतु दोउ दरव में, ये ही गुण परजाय वृद्धि हानि गति है। ।१०१।। संज्वल कषाय थूल उदै मोह सूक्षम के, थूल मोह क्षय तथा उपसम को है। याही करि कारण ते संजम को भाव होय, छट्ठा गुणथान मांहि महा लहि ल ह्यो है। ताको मिथ्यामती केउ मूढ जन मानतु है, नय की विवक्षा भेद कछू नाहिं गह्यो है। सहज प्रतच्छ शिव-पंथ में निषेध कीने, यहां न विरोध कोउ रंच हू न रह्यो है ।।१०२।।
__ अथ छट्ठो भेद सामायिक-कथन सुभ वा असुभ नाम जाके समभाव करे, भली बुरी थापना में समता करीजिये। चेतन अचेतन वा भलो बुरो द्रव्य देखि, धारिके विवेक तहां समता धरीजिये। शोभन-अशोभन जो ग्राम वन मांहि सम, भले बुरे समै हूं में समभाव कीजिये। १ युक्त, सहित. २ मुद्रित पाठ है-जागे.