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ऐसो जिनराज प्रभु केवल सुज्ञानी है।।६४ ।। करत हरण शोक ऐसो है अशोकतरु, देवन की करी फूलदृष्टि सुखदाई है। दिव्यध्वनि करि महा श्रवण को सुख होत, सिंहासन सोहे सुर चमर ढराई है। भामंडल सोहे सखदानी सब जीवन को. दुंदुभि सुबाजे जहां अति अधिकाई है। त्रिभुवनपति प्रभु यातें हैं छतर तीन, महिमा अपार ग्रंथ-ग्रंथन में गाई है।।६५ ।। परम अखंड ज्ञान मांहि ज्ञेय भासत है, ज्ञेयाकार रूप विवहार ने बतायो है। निहचे निरालो ज्ञान ज्ञेय सों बखान्यो जिन, दरसन निराकार ग्रंथनि में गायो है। वीरज अनंत सुख सासतो सरूप लिए, चतुष्टै अनंत वीतराग देव पायो है। जिन को बखानत ही ऐसे गुण प्रापति है, यातें जिनराजदेव 'दीप' उर भायो है ! ।६६ ।। सकल करम सों रहित जो, गुण अनंत परधान । किंच ऊन परजाय है, वहै' सिद्ध भगवान ।।६७ ।। गुण छतीस भंडार जे, गुण छतीस हैं जास। निज शरीर परजाय है, आचारज' परकास' ।।६७ ।। पूरवांग ज्ञाता महा, अंगपूरव गुण जानि। जिह सरीर परजाय है, उपाध्याय सो मानि ।।६६ ।। आठबीस गुणको धरे, आठबीस गुणलीन । निज सरीर परजाय है, महासाधु परवीन' ||१००|| १ वहीं, २ आचार्य, ३ प्रकाश, ४ अट्ठाईस मूलगुण को धारण करते हैं, ५ प्रवीण. चतुर