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अतिसै सहज दस जनम ते होइ ऐसे, तिहुंलोकनाथ भवि जीव निसतारी है।।६१ | गान गान पा हो जोन में, सुरभिक्ष च्यारों दिसि छाया नहिं पाइये। नयन पलक नाहिं लगे न आहार ताके, सकल परम विद्या प्रभु के बताइये । प्राणी को न वध उपसर्ग नहिं पाइयतु, फटिक समान तन महा सुद्ध गाइये। केस नख बढ़े नाहिं घातिया करम गए, अतिसै जिनेंदजी के मन में अनाइये ।।६२!। सकल अरथ लिए मागधीय भाषा जाके, तहां सब जीवन के मित्रता ही जानिये। दरपण सम भूमि गंधोदकवृष्टि होय, परम आनंद सब जीव को बखानिये । सब रितु के फल-फूल है बनसपति. यों न देव-भूमि में उपज लियो मानिये। चरणकमल तलि रचहिं कमल सुर, मंगल दरब वसु हिये में प्रमानिये ।।६३| विमल गगन दिसि बाजत सुगंध वायु, धान्य को समूह फले महा सुखदानी है। चतुरनिकाय देव करत जयकार जहां, धर्मचक्र देखि सुख पावे भवि प्रानी है। देवन किए यह अतिसै चतुरदस, महिमा सुपुण्य केरी जग में बखानी है। कहे 'दीपचंद' जाको इंद हू से आय नमें, १ अतिशय, चमत्कार, २ योजन, कोस. ३ स्फटिक मणि. ४ मुद्रित पाठ है-जे उजूला यौ, ५ मुद्रित पाल 'हंकार?' है, ६ चौदह अतिशय, ७ इन्द्र भी, आ कर नमते हैं
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