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आचार्य हेमचन्द्र
कुमारपाल चरित में रस-भाव योजना - रस और भावाभिव्यञ्जन की दृष्टि से यह प्राकृत काव्य उच्च कोटि का है। शृगार, शान्त, और वीर इन रसों से सम्बन्धित अनेक श्रेष्ठ पद्य आये हैं। एक विटपुरुष आसन पर बैठी हुई अपनी प्रिया की आँखे बन्द कर प्रेमिका का चुम्बन कर लेता है। कवि हेम ने इस सन्दर्भ का सरस वर्णन किया है । जब उस प्रियतमा को उसकी धूर्तता का भाभास मिला तो वह उससे रुष्ट हो गयी। अतः वह उसको प्रसन्न करता हुआ चाटुकारिता पूर्वक कहने लगा, प्रिये, झूठी बात सुनकर क्रोध मत कर, मैं तुम्हारा हूँ और तुम मेरी हो। भला तुम्हारे अतिरिक्त मैं अन्य किसी से प्रेम कर सकता हूँ। तुम्हें भ्रम हो गया है'। इस प्रकार चाटुकारी की बातें कर उस विचक्षण गायिका को वह प्रसन्न करता है।
दशार्णपति को जीतकर कुमारपाल की सेना ने उसकी नगरी को लूटकर उसका सारा धन ले लिया। कवि ने इस युद्ध के इस प्रसङग का सुन्दर वर्णन किया है । अमथित दुग्ध के समान श्वेत कीर्तिधारी आपके तेज और प्रताप की उष्णता ने दशार्ण नृपति के कीर्तिरूपी पुरुष को म्लान कर दिया है । आपकी सेना ने समुद्र मन्थन के समान नगर का मन्थन कर सुवर्णरत्नादि को लूट लिया है। दशार्णपति का नगर समुद्र के समान विशाल था, इसी कारण कवि ने रूपक द्वारा मलधि कहा है। इन पद्यों में कवि ने रूपक अलङकार की योजना कर वीरता का वर्णन किया है। सेना दवारा दशार्णपति के नगर को लूटे जाने का सुन्दर और सजीव चित्रण किया है।
__ भावों की शुद्धि पर बल देता हुआ कवि कहता है कि गंगा-जमुना आदि नदियों में स्नान करने से शुद्धि नहीं हो सकती। शुद्धि का कारण भाव है । अतः जिसकी भावनाएँ शुद्ध हैं, आचार-विचार पवित्र हैं, वही मोक्ष-सुख प्राप्त करता है । गंगा, यमुना, सरस्वती और नर्मदा नदियों में स्नान करने से यदि शुद्धि हो तो महिष आदि पशु इन नदियों में सदा ही डुबकी लगाते रहते हैं, अतः १-- प्राकृत द्वयाश्रय-सर्ग ३, श्लोक ७४ तथा ७५ गाथा । २-- प्राकृत द्वयाक्षय-सर्ग ६, गाथा ८१-८२ ।
अणकठिअ-दुद्ध सुइजस पयाव-धममट्टि आरि-जसकुसुम । तुह गाष्ठिअ-व्हेणा विरोलिओ तस्स पुरजल ही ॥ मन्त्रिह-दहिणो तुष्पवधुरुप्लिआ तस्स नयरयोकणयं ।
गिन्ने हिं तुह सेणिएहि अत अच्छिा आहे ॥ ६-८१-८२ ३- प्राकृत द्वायाश्रय सर्ग ८ श्लोक ८.