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- आचार्य हेमचन्द्र
वह आधा वस्त्र लेकर उसे सुधारने के लिए कारोगर के पास दिया। कारीगर ने कहा इसका दूसरा टुकड़ा यदि लाओगे तो इसकी कीमत बढ़ेगी। वह ब्राह्मण महावीर के पीछे-पीछे धूमने लगा। महावीर का आधा वस्त्र किसी पेड़ में उलझ गया, ब्राह्मण ने उसे निकालकर ले लिया। महावीर ने उस दिन से फिर कभी भी वस्त्र ही धारण नहीं किया।
___ इसी प्रकार एक दूसरी कथा है। वर्षाऋतु में भगवान महावीर एक कूलपति के आश्रम में रहे । कुलपति ने उनके लिए एक घास की झोंपड़ी बना दी। समीप के गाँव से गायें आयीं । उन्होंने उस कुटी का तृण भक्षण किया। महावीर ने कुटिया की रक्षा न करते हुए गायों को उसी प्रकार खाने दिया। आश्रम-वासियों ने इसके लिए महावीर को ही दोष दिया। महावीर ने आश्रम छोड़ दिया । इस प्रकार वैराग्य, धैर्य, दीर्घदर्शिता, क्षमा इत्यादि गुणों का आदर्श बतलाने वाली अनेक कथाएँ महावीर-चरित में हैं।
इस ग्रन्थ का अन्तिम भाग परिशिष्टपर्व यथार्थतः एक स्वतन्त्र ही रचना है और वह ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण है। इसमें महावीर के पश्चात् उनके केवली शिष्यों तथा दशपूर्वी आचार्यों की परम्परा पायी जाती है। इस भाग को स्थविरावलि चरित भी कहते हैं । यह केवल आचार्यों की नामावली मात्र नहीं है, किन्तु यहाँ उनसे सम्बद्ध नाना लम्बी-लम्बी कथाएँ भी कही गयी हैं, जो उनसे पूर्व आगमों की नियुक्ति, भाष्य, चूणि आदि टीकाओं से और कुछ सम्भवतः मौखिक परम्परा से संकलित की गयी हैं। इनमें स्थूलभद्र और कोशा वेश्या का उपाख्यान, कुवेरसेना नामक गणिका के कुवेरदत्त और कुवेरदत्ता नामक पुत्र-पुत्रियों में परस्पर प्रेम की कथा, आर्य स्वयम्भव द्वारा अपने पुत्र मनक के लिए दशवकालिक सूत्र की रचना का वृत्तान्त तथा आगम के संकलन से सम्बन्ध रखने बाले उपाख्यान, नन्द राजवंश सम्बन्धी कथानक, एवम् चाणक्य और चन्द्रगुप्त द्वारा उस राजवंश के मूलोच्छेद का वृत्तान्त आदि अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । ग्रन्थ-कर्ता ने अपने इस पुराण को महाकाव्य कहा है। यद्यपि रचना का बहुभाग कथात्मक है और पुराणों की स्वाभाविक सरल शैली का अनुसरण करता है, तथापि उसमें अनेक स्थलों पर रस-भाव व अलङ्कारों का ऐसा समावेश है, जिससे इसका महाकाव्य-पद भी प्रमाणित होता है । डा. ए० वी० कीथ के अनुसार इसमें वर्णित कथाएँ पौराणिक उपाख्यानों के ढंग की न होकर विशेष रूप से साधारण लोक-कथा के प्रकार की हैं। ये पुराकथाएँ शैली और कहावतों में धार्मिक साहित्य की कृति के निकट पहुँचने की प्रवृत्ति