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जीवन-वृत्त तथा रचनाएँ
इस वाद-विवाद सभा में काकल कायस्थ भी उपस्थित थे। प्रभावक के अनुसार उत्साह पण्डित भी वहाँ विद्यमान थे।
समकालीन आचार्यों में हेमचन्द्र का स्थान सर्वोपरि माना जाता है, क्योंकि समकालीन आचार्यों ने विशेषकर धार्मिक एवम् दार्शनिक पक्ष का ही मण्डन किया था। कुछ विद्वानों ने तीर्थङ्करों के चरित्र भी लिखे । किन्तु साहित्य, दर्शन एवम् धर्म के प्रत्येक पहलू पर समान रूप से साधिकार प्रकाश डालने वाला एक भी लेखक नहीं हुआ। देवसूरी ने 'प्रमाणनयतत्वालोकालङ्कार' तथा 'स्याद्वादरत्नाकर' नामकवृहट्टीका की रचना की; किन्तु वे टीकाएँ हेमचन्द्र की प्रमाणमीमांसा से निकृष्ट हैं। श्री दत्तसूरि के प्रशिष्य और यशोभद्रसूरि के, जिनका निर्वाण गिरनार में हुआ, शिष्य प्रद्युम्नसूरि ने 'स्थानक प्रकरण' लिखा। उनके शिष्य देवचन्द्र ने स्थानक प्रकरण पर टीका तथा 'शान्तिजिन चरित' लिखा। देवचन्द्र ने 'चन्द्रलेखा विजय प्रकरण' भी लिखा । हरिभद्रसूरि ते सं० १२१६ में ' नेमिचरित' पूरा किया। सोमप्रभसूरि ने 'कुमारपाल प्रति बोध' लिखा जिसमें हेमचन्द्र की महत्ता पर प्रकाश डाला गया। यशपाल ने 'मोहराज विजय' नाटक में कुमारपाल के जैनधर्म-वरण के विषय में वर्णन किया है । सोमदेव के पुत्र वाग्भट ने 'नेमिनाथ चरित' लिखा। आचार्य हेमचन्द्र का शिष्य-सम्प्रदाय भी बहुत बड़ा था । सन्नाट कुमारपाल, उदयन मन्त्री आम्रभट्ट, वाग्भट, चाहड, खोलक, राजवर्गीया प्रजावर्गीय, आदि श्रावक शिष्यों के अतिरिक्त प्रबन्धशतक कवि रामचन्द्रसूरि, अनेकार्थ कोश के टीकाकार महेन्द्रसूरि, गुणचन्द्रगणि, वर्धमानगणि, देवचन्द्रगणि, यशश्चन्द्रगणि, महान्वैयाकरण उदयचन्द्रगणि आदि इनके शिष्य थे।
इस प्रकार इस युग में साहित्य-सर्जना पर्याप्त मात्रा में हुई यद्यपि इसमें टीकाएँ तथा सार अधिक हैं। वास्तु-कला पर इस युग का प्रभाव पड़ा। कला की दृष्टि से भी यह युग बड़ा सफल रहा है । वास्तु-कला की विभिन्न शैलियों का विकास हेमचन्द्र-युग में ही हुआ। जैनों ने भवन-निर्माण में बहुत अधिक रुचि दिखायी । हेमचन्द्र के प्रभाव से गुजरात, काठियावाड, कच्छ, राजपूताना एवम् मालवा में जैनधर्म फैला । कुमारपाल प्रतिबोध के अनुसार पाटन में कुमारविहार, पार्श्वनाथ में २४ तीर्थङ्करों के सोने, चाँदी एवम् ताँबे की प्रतिमाएँ हैं, तथा त्रिभुवन विहार में ७२ मन्दिर, जिनमें नेमिनाथ की सोने की प्रतिमा है, बने हैं। कुमार विहार में चैत्र और आश्विन की पूर्णिमा को रथ-यात्रा निकलती थी ।