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आचार्य हेमचन्द्र
कांक्षा के प्रेरणा-स्रोत बन होंगे। 'रत्नाकरवर्तिका' के रचयिता श्री रत्नप्रभसूरि हेमचन्द्र के ज्येष्ठ समकालीन ही थे। इस प्रकार तत्कालीन परिस्थितियों का लाभ हेमचन्द्र को पूरा-पूरा मिला होगा।
हेमचन्द्र सिद्धराज जयसिंह के सभापण्डित थे। उस समय सिंह नामक सांख्यवादी, जैन वीराचार्य, 'प्रमाणनयतत्वावलोक', और 'स्याद्वाद-रत्नाकर' नामक टीका के रचयिता, प्रसिद्ध तार्किक वादि देवसूरि प्रख्यात विद्वान् थे । 'कुमुदचन्द्र' नाटक में जयसिंह की विद्वत्सभा का वर्णन है। उसमें तर्क, भारत, पाराशर, महर्षिसम महर्षि, शारदा देश के सुविख्यात 'उत्साह' पण्डित, सागरसम सागर पण्डित तथा प्रमाणशास्त्र पारङ्गत 'राम' का उल्लेख है । बड़नगर की प्रशस्ति के रचयिता प्रज्ञाचक्षु प्राग्वाट् (पोरवाड़), कवि श्रीपाल और महाविद्वान् महामति भागवत एवम् देवबोध परस्पर स्पर्धा करते हुए भी जयसिंह को मान्य थे। वाराणसी के भावबृहस्पति ने भी पाटन में आकर शवधर्म के उद्धार के लिए जयसिंह को समझाया था। इसी भावबृहस्पति को कुमारपाल ने सोमनाथ पाटन का गण्ड (रक्षक) भी बनाया था। इसके अतिरिक्त मलधारी हेमचन्द्र 'गणरत्नमहोदधि' के कर्ता वर्धमानसूरि, 'वागभटालङ्कार' के कर्ता वाग्भट आदि विद्वान् पाटन में प्रसिद्ध थे। जिस पण्डित-मण्डल में आचार्य हेमचन्द्र ने प्रसिद्धि प्राप्त की वह साधारण नहीं था, किन्तु उनका प्रभाव प्रारम्भ से ही अक्षुण्ण रहा।
श्री देवसूरि, जो वादिदेवसूरि नाम से प्रसिद्ध थे, आचार्य हेमचन्द्र के साथ सिद्धराज जयसिंह की सभा में थे। एक बार कुमुदचन्द्र नामक दिगम्बर विद्वान् कर्णावती में आये । शास्त्रार्थ का दिन निश्चित हुआ। मयणल्ला देवी कुमुदचन्द्र की पक्षपातिनी थी। उस सभा में प्रभु श्री देवसूरि ने मुनीन्द्र हेमचन्द्र के साथ एक ही आसन को अलङ्कृत किया था। हेमचन्द्र ने अवस्था में कम होने पर भी आचार्यत्व की दृष्टि से वरिष्ठ होने के नाते, देवसूरि की सहायता की। उस समय सम्भवतः देवसूरि के समान हेमचन्द्र प्रसिद्ध नहीं थे। वादविवाद के अन्त में कुमुदचन्द्र ने कहा, 'श्री देवाचार्य ने मुझे जीत लिया। श्री हेमचन्द्र ने कहा, 'सूर्य के समान देवाचार्य कुमुदचन्द्र को न जीत पाते तो श्वेताम्बर संसार में कौन कटि में वस्त्र पहनने पाता ।' 'प्रबन्धचिन्तामणि' के अनुसार