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जीवन-वृत्त तथा रचनाएँ
विश्वबन्धुत्व के पोषक और अपने युग के प्रकाश-स्तम्भ ही नहीं, अपितु युग-युग के प्रकाश-स्तम्भ हैं । इस युग-पुरुष को साहित्य और समाज सर्वदा नतमस्तक हो नमस्कार करता रहेगा। हेमचन्द्र और उनका युग
आचार्य हेमचन्द्र का युग गुजरात के साहित्य एवम् संस्कृति के इतिहास का स्वर्ण-युग कहा जा सकता है। इस समृद्धि के लिए राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक परिस्थितियाँ पूर्णतया अनुकूल थीं। अनहिलवाड़ में चालुक्य वंश के मूल प्रतिष्ठापक श्री मूलराज से लेकर कुमारपाल के उत्तराधिकारियों तक जो नृप हुए उनमें चरित्र एवम् सद्गुणों का उत्तरोत्तर विकास पाया जाता है। मन्दिरों का जीर्णोद्धार करना, नवनिर्माण करना तथा धर्मप्रसार में योगदान देना इन राजाओं का आनुवंशिक कार्य था' । सातवीं शती के दो गुर्जर नरेशों जयभट और दण्ड के दानपत्रों में 'वीतराग' और 'प्रशान्तराग' विशेषण पाये जाते हैं, वे उनके जैनानुराग को ही प्रकट करते हैं । मूलराज ने अनहिलवाड़ में 'मूलवसतिका' नामक जैन मन्दिर बनवाया। देवगुप्त के शिष्य शिवचन्द्र तथा उनके शिष्यों ने गुर्जर देश में जैन धर्म का खूब प्रचार किया और उसे बहुत से जैन मन्दिरों के निर्माण द्वारा अलङ्कृत किया।
भीम के राज्य में जैन धर्म का विशेष प्रसार हुआ। उसके मन्त्री प्राग्वाट वंशी विमलशाह ने आबू पर आदिनाथ का वह जैन मन्दिर बनवाया जिसमें भारतीय स्थापत्य-कला के उत्कृष्ट दर्शन होते हैं । इसकी सूक्ष्म चित्रकारी, बनावट की चतुराई तथा सुन्दरता जगत्-विख्यात है। इस प्रकार १२ वीं शताब्दी में गुजरात के सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास की विधायक कड़ी के रूप में आचार्य हेमचन्द्र युगान्तरकारी और युगसंस्थापक व्यक्तित्व को लेकर अवतीर्ण हुए थे।
आचार्य हेमचन्द्र ने पूर्व प्रसिद्ध सभी आचार्यों से प्रेरणा प्राप्त की होगी। संस्कार समृद्धि का उन्हें जरूर लाभ मिला होगा । हरिभद्रसूरि, जिन्होंने 'षड्दर्शनसमुच्चय' की रचना श्रीमाल नगर में ही की थी, हेमचन्द्र की महत्वा
१ -चौलुक्य कुमारपाल-भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, वाराणसी। २- "भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान" डा० हीरालाल जैन