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आचार्य हेमचन्द्र
प्रति पक्षपात नहीं है और नहीं किसी के द्वेष के कारण दूसरे से अरुचि है; मन्त्रों, आगमों के ज्ञान और यथार्थ परीक्षा के बाद तेरी शरण ली है । आचार्य केवल भावनाप्रधान नहीं थे, बुद्धिप्रधान थे तथा वे कालिदास की उक्ति “सन्त: परीक्ष्यान्यतरद् भज॰ते” के अनुसार व्यवहार करने वाले थे ।
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वृद्धावस्था में हेमचन्द्रसूरि को लूता रोग लग गया; परन्तु अष्टांगयोगाभ्यास द्वारा लीला के साथ उन्होंने उस रोग को नष्ट किया । ८४ वर्ष की अवस्था में अनशनपूर्वक अन्त्याराधन क्रिया उन्होंने आरम्भ की तथा कुमारपाल से कहा " तुम्हारी आयु के भी ६ मास शेष हैं ।" कुमारपाल को धर्मोपदेश देते हुए दशम् द्वार से उन्होंने प्राण त्याग कर दिया । इस प्रकार वि० सं० १२२६ में आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी ऐहिक लीला समाप्त की । उनके शरीर की भस्म को इतने लोगों ने अपने मस्तक पर लगाया कि अन्त्येष्टि-क्रिया के स्थान पर एक गढ़ा हो गया जो आज भी हेमखड्ड के नाम से प्रसिद्ध है । श्री हेमचन्द्राचार्य का समाधि स्थल शत्रुञ्जय पहाड़ पर स्थित है । दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनोंही इन स्थानों की भक्तिभाव से यात्रा करते हैं । प्रभावक्चरित के अनुसार राजा कुमारपाल को आचार्य का त्रियोग असह्य रहा और छः मास पश्चात् वह भी स्वर्ग सिधार गया ।
इस तरह यदि यह कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी कि तर्क, लक्षण, और साहित्य में पाण्डित्य प्राप्त करने के साधन देकर हेमचन्द्र ने गुजरात को स्वावलम्बी बनाया | हेमचन्द्र गुजरात के विद्याचार्य हैं । भारतवर्ष के संस्कृतसाहित्य के इतिहास में इन्हें महापण्डितों की प्रथम पति में स्थान प्राप्त है गुजरात में उनका स्थान राजा प्रजा के आचार सुधारक रूप से महान आचार्य का है | हेमचन्द्र का व्यक्तित्व बहुमुखी था । ये एक साथ महान् सन्त, शास्त्रीय विद्वान, वैयाकरण, दार्शनिक, काव्यकार, योग्य लेखक और लोक चरित के अमर सुधारक थे । इनके व्यक्तित्व में स्वर्णिम प्रकाश की वह आभा थी जिसके प्रभाव से सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल जैसे सम्राट आकृष्ट हुए थे । ये
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न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरूचि परेषाम्
यथावदाप्ता तात परीक्षयाच त्वामेव वन्दे । प्रभुमाश्रितास्मः ॥ महावीर स्तुति - श्लोक ५
२ - हेमाचार्य कुमारपालयो मृत्युवर्णनम् - प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ - ९५