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जीवन-वृत्त तथा रचनाएं
इङ्गित करते हुए कहा "कम्बल और लठ्ठ लिये हुए हेमग्वाल तुम्हारी रक्षा करे।" इतना कह वह चुप हो गया। कुमारपाल भी वहाँ विद्यमान थे। इस वाक्य को निन्दाविधायक समझ उनकी त्योरी चढ़ गई। हेम कवि को तो लोगों के हृदय और मस्तिष्क की परीक्षा करनी थी, उसने यह दृश्य देखकर तुरन्त अधोलिखित श्लोकार्ध पढ़ा जिसका आशय है कि वह गोपाल जो षड्दर्शन रूपी पशुओं को जैन तृणक्षेत्र में हाँक रहा है । इस उत्तरार्द्ध से उसने समस्त सभ्यों को सन्तुष्ट कर दिया।
कुमारपाल ने अपने धर्मगुरु आचार्य हेमचन्द्रसूरी के पास जैन धर्म की गृहस्थ-दीक्षा (श्रावक धर्म-व्रत) स्वीकार करते समय सबसे पहले जब अहिंसाव्रत स्वीकार किया, उस समय को लक्ष्य करके रूपकात्मक प्रबन्ध का प्रणयन प्रबन्धचिन्तामणि के परिशिष्ट में किया गया है। इसमें अहिंसा को एक राजकन्या माना है जो हेमचन्द्र के आश्रम में पलकर बड़ी उम्रवाली वृद्धाकुमारी हो गई है। अन्यान्य राजाओं के अधार्मिक आचरण देखकर वह किसी के साथ विवाह करना नहीं चाहती । कुमारपाल, जो हेमचन्द्र का शिष्य बना है, उसके धर्मभाव से मुग्ध होता है । आचार्य के आदेश से वह उसका पाणिग्रहण कर लेता
कुमारपाल हेमचन्द्र के पास विद्याध्ययन करते थे। वे विद्वत्सभा में समस्या-पूर्ति तो करते ही थे; तीर्थयात्रा में वे कुमारपाल के साथ यात्रा भी करते थे। एक बार यात्रा करते हुए वे सम्पूर्ण सङ्घ के साथ धुन्धुक्क नगर में आये। वहाँ उन्होंने आचार्य के जन्मस्थान में स्वयम् बनाये हुए १७ हाथ ऊँचे झोलिकाविहार में महोत्सव किया ।
हेमचन्द्र के प्रभाव से महान शैव मठाधीश गण्ड वृहस्पति जैन आचार्यों का वन्दन करते थे। इतना होने पर भी वे अन्ध-श्रद्धा के पक्षपाती नहीं थे। उन्होंने महावीर-स्तुति में स्पष्ट कहा है-'हे वीर प्रभु केवल श्रद्धा से ही आपके १- पातु को हेमगोपालः कम्बलं दण्डमुद्वदृन् ।
षड्दर्शनपशुग्रामं चारयन् जैन-गोचरे ॥ प्रभावक्चरित-पृष्ठ ३१५
श्लोक ३०४ २- प्रबन्धचिन्तामणि कुमारपालादि प्रबन्ध-पृष्ठ ८४