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जीवन-वृत्त तथा रचनाएँ
दोनों के प्रथम मिलन के सम्बन्ध में एक और घटना प्रकाश में आयी है। एक बार कुमारपाल जयसिंह से मिलने गया था। मुनि हेमचन्द्र को व्यासपीठ पर बैठे देखकर वह अत्यधिक आकृष्ट हुआ और उनके भाषणकक्ष में जाकर भाषण सुनने लगा। उसने पूछा, मनुष्य का सबसे बड़ा गुण क्या है ? हेमचन्द्र ने प्रत्युत्तर में कहा, "दूसरों की स्त्रियों में मां-बहन की भावना रखना, सबसे बड़ा गुण है" । यदि यह घटना ऐतिहासिक है तो अवश्य ही वि. सं. ११६६ के आसपास घटी होगी क्योंकि उस समय कुमारपाल को अपने प्राणों का भय नहीं था।
"कुमारपाल प्रतिबोध" के अनुसार मन्त्री वाग्भटदेव बाहडदेव द्वारा कुमारपाल के राजा होने के पश्चात् वह हेमचन्द्र के साथ गाढ़ परिचय में आया होगा ।
"प्रभावक्चरित से ज्ञात होता है कि जब कुमारपाल अर्णोराज को जीतने में असफल रहा तो मन्त्री वाहड की सलाह से उसने अजितनाथ स्वामी की प्रतिमा का स्थापन समारोह किया, जिसकी विधि आचार्य हेमचन्द्र ने सम्पन्न करायी थी।
यह तो सत्य है कि राज्य-स्थापना के आरम्भ में कुमारपाल को धर्म के विषय में सोच-विचार करने का अवकाश नहीं था, क्योंकि पुराने राज्याधिकारियों से उसे अनेक प्रकार से सङ्घर्ष करना पड़ा था। वि.सं. १२०७ के लगभग उसका जीवन आध्यात्मिक होने लगा था। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि हेमचन्द्र का सम्पर्क कुमारपाल से पहले ही हो चुका था । राजा होने के १६ वर्ष बाद उसने जैन धर्म अङगीकार किया था अथवा नहीं, इस विषय में पर्याप्त मतभेद है । श्री ईश्वरलाल जैन के अनुसार कुमारपाल ने मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी वि. सं.१२१६ को श्रावक धर्म के १२ व्रत स्वीकार कर विधि पूर्वक जैन धर्म में दीक्षा ग्रहण की । जैन धार्मिक ग्रन्थों में भी इस कथन की पुष्टि की है। किन्तु अन्य ग्रन्थों से इसकी पुष्टि न होने के कारण, यह बात विवादास्पद १- काव्यानुशासन-भूमिका- PPcc Lxxxiii-eeLxxxIV २- कुमारपाल प्रबन्ध, पृष्ठ १८-२२ ३- प्रभावक्चरित, पृष्ठ ३००-४०० ४- द्वादशव्रत-अणुव्रत-५-गुणव्रत-३, शिक्षाव्रत-४, (पृष्ठ ४५)