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- आचार्य हेमचन्द्र
अनुसार सिद्धराज ने सिद्धपुर में महावीर स्वामी का मन्दिर भी बनवाया, सिद्धपुर में चार जिन् प्रतिमाओं से समृद्ध सिद्धविहार बनवाया' ।
मालव विजय के पश्चात् जयसिंह की मृत्यु पर्यन्त हेमचन्द्र का उससे सम्बन्ध रहा अर्थात् वि० सं० ११९१ से वि० सं० ११६६ तक लगभग ७ वर्ष उनका जयसिंह से अटूट सम्बन्ध रहा । इन सात वर्षों में हेमचन्द्र की साहित्यिक प्रवृत्ति के अनेक फल गुजरात के माध्यम से भारत को मिले । साहित्यक दृष्टि से पहला श्रेष्ठ फल है-सुप्रसिद्ध "शब्दानुशासन"। मालब विजय के पश्चात् भोज-व्याकरण के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए गुजरात का पृथक् व्याकरण ग्रन्थ सिद्धराज जयसिंह के आग्रह एवं अनुरोध पर आचार्य हेमचन्द्र ने बनाया२ । प्रत्येक पाद के अन्त में चालुक्य वंशीय राजाओं की स्तुति में श्लोक लिखे । काकल कायस्थ जो आठ व्याकरणों के ज्ञाता थे, इस व्याकरण के अध्यापक नियुक्त किये गये । सिद्धराज जयसिंह की प्रेरणा से ही हेमचन्द्र को व्याकरण, कोश, छन्द तथा अलङ्कारशास्त्र रचने का अवसर प्राप्त हुआ और अपने आश्रय-दाता राजा का कीर्तन करने वाले, व्याकरण सिखाने वाले, तथा गुजरात के लोक-जीवन के प्रतिबिम्ब को धारण करने वाले 'ढयाश्रय' नामक महाकाव्य रचने की इच्छा हुई।
सिद्धराज जयसिंह के लिए "मिथ्यात्वमोहितमति" विशेषण संस्कृत ग्रन्थों में मिलता है । इससे सिद्ध होता है कि वे अन्त तक शैव ही रहे हैं। फिर भी आचार्य हेमचन्द्र के साथ धर्म-चर्चा से उनमें जैनानुरक्ति जगी थी, ऐसा दिखाई देता है । अरबी भूगोलज्ञ अली इदसी ने लिखा है कि "जयसिंह बुद्ध प्रतिमा की पूजा करता था"। यह उल्लेख डॉ. बूल्हर ने किया है । हेमचन्द्र का अमृतमय वाणी में उपदेश न मिलने पर जयसिंह के चित्त में एक क्षण भी सन्तोष नहीं होता था, किन्तु सिद्धपुर में महावीर स्वामी का मन्दिर बनवाने पर उसकी देखभाल करने के लिये ब्राह्मणों को नियुक्त करने से सिद्धराज जयसिंह की केवल जैनानुरक्ति ही परिलक्षित होती है ।
सिद्धराज जयसिंह स्वयं भी महान् विद्वान् था । 'मुद्रित-कुमुदचन्द्र' नाटक में जयसिंह की विद्वत्सभा का वर्णन आता है । वह जैन सङ्घों का १- संस्कृत द्वयाश्रय महाकाव्य - सर्य १५, श्लोक १६ २- प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ ६० तथा प्रबन्ध कोश -राजशेखरसूरि ३- लाईफ आफ हेमचन्द्र - डॉ. बूल्हर ।