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जीवन-वृत्त तथा रचनाएँ
में प्रवेश किया और अपनी विद्वत्ता तथा चारित्र-बल से राजा को प्रसन्न किया। इस प्रकार राज-सभा में हेमचन्द्र का प्रवेश प्रारम्भ हुआ और इनके पाण्डित्य, दूरदर्शिता, तथा सर्व धर्म-स्नेह के कारण इनका प्रभाव राजसभा में उत्तरोत्तर बढ़ता गया।
कुमुदचंद्र के शास्त्रार्थ के अवसर पर सभा-पण्डित के नाते हेमचंद्र की उपस्थिति की घटना सत्य हो, तो निःसन्देह वि० सं० ११८१ के पूर्व वे सिद्धराज जयसिंह के सम्पर्क में आये होंगे । किन्तु उस समय सभा में इनका अपूर्व प्रभाव परिलक्षित नहीं होता। अतः इस लोक-विख्यात वाद-विवाद के निकटभूतकाल में ही इनका जयसिंह की राज सभा में प्रवेश हुआ होगा, यह सम्भव प्रतीत होता हैं । 'प्रबन्धचिन्तामणि' तथा 'प्रभावकचरित' के अनुसार कुमारपाल तथा आचार्य हेमचन्द्र की प्रथम भेंट सिद्धराज जयसिंह के दरबार में हुई थी । यदि इस घटना को सत्य माना जाय तो यह सिद्ध होता है कि हेमचन्द्र वि० सं० ११८१ के कई वर्ष पूर्व ही अणहिलपुर में आ गये थे क्योंकि उस समय कुमारपाल को जयसिंह से भय नहीं था। प्रो० पारीख का मत है कि यह घटना वि० सं० ११६६ के आसपास घटी होगी' । जब सिद्धराज जयसिंह ने मालवा पर विजय प्राप्त की तब उस विजय के उपलक्ष में आचार्ग हेमचन्द्र ने जैन प्रतिनिधि के नाते उनका स्वागत किया । यह घटना वि० सं० ११६१-६२ में घटित हुई होगी।
सिद्धराज जयसिंह और आचार्य हेमचन्द्र का सम्बन्ध कैसा रहा होगा इसका अनुमान करने के लिए श्री सोमप्रभसूरि पर्याप्त जानकारी देते हैं। "बुधजनों के चूड़ामणि आचार्य हेमचन्द्र भुवन-प्रसिद्ध सिद्धराज को सम्पूर्ण स्थानों में पृष्टव्य हुए। मिथ्यात्व से मुग्धमति होने पर भी उनके उपदेश से जयसिंह जिनेन्द्र के धर्म में अनुरक्तमना हुआ । हेमचन्द्र के प्रभाव में आकर जयसिंह ने रम्य राजविहार बनवाया। उनके संस्कृत द्वयाश्रय महाकाव्य के
१- प्रो० पारीख – काव्यानुशासन - पृष्ठ ४०, प्रस्तावना २- प्रभावक्चरित - पृष्ठ ३०० श्लोक ७२.
प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ ६०-७३ ३- कुमारपाल प्रतिबोध, पृष्ठ २२ गा० ओ० सी० बड़ोदा ४- महालयो महायात्रा महास्थानं महासरः ।
यत्कृतं सिद्धराजेन क्रियते तन्नकेनचित् ।।