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जीवन-वृत्त तथा रचनाएँ
संरक्षण में चाङ्गदेव को रखकर आचार्य देवचन्द्र निश्चिन्त होना चाहते थे।
चाचिग जब प्रवास से लौटा तो वह अपने पुत्र सम्बन्धी घटना को सुनकर बहुत दुखी हुआ तथा तत्काल कर्णावती की और चल दिया। पुत्र के अपहार से वह दुखी था, अतः गुरु देवचन्द्राचार्य की भी पूरी भक्ति न कर सका । ज्ञानराशि आचार्य तत्काल उसके मन की बात समझ कर उसका मोह दूर करने के लिये अमृतमयी वाणी में उपदेश देने लगे। इसी बीच आचार्य ने उदयन मन्त्री को अपने पास बुला लिया और मन्त्रिवर ने बड़ी चतुराई के साथ चाचिग से वार्तालाप किया और धर्म के बड़े भाई होने के नाते श्रद्धापूर्वक अपने घर ले गया और बड़े सत्कार के साथ उसे भोजन कराया । तदनन्तर उसकी गोद में चाङ्गदेव को बिठा कर पञ्चाङ्ग सहित तीन दुशाले और तीन लाख रुपये भेंट किये । कुछ तो गुरु के उपदेश से चाचिग का चित्त द्रवीभूत हो गया था और अब इस सम्मान को पाकर वह स्नेहविह्वल होकर बोला, "आप तो ३ लाख रुपये देते हुए उदारता के छल में कृपणता प्रकट कर रहे हैं । मेरा पुत्र अमूल्य है। परन्तु साथ ही, मैं देखता हूं कि आपकी भक्ति उसकी अपेक्षा कहीं अधिक अमूल्य है अतः इस बालक के मूल्य में अपनी भक्ति ही रहने दीजिये । आपके द्रव्य. का तो मैं शिवनिर्माल्य के समान स्पर्श भी नहीं कर सकता"। चाचिग के इस कथन को सुनकर उदयन मन्त्री बोला “आप अपने पुत्र को मुझे सौंपेंगे, तो उसका कुछ भी अभ्युदय नहीं हो सकेगा, परन्तु यदि इसे आप पूज्यपाद गुरुवर्य के चरणारविन्द में समर्पित करेंगे तो वह गुरुपद प्राप्त कर बालेन्दु के समान त्रिभुवन में पूज्य होगा। अत: आप सोच विचार कर उत्तर दीजिये। आप पुत्र-हितैषी हैं, साथ ही आप में धर्म संस्कृति के सरंक्षण की ममता भी है" । मन्त्री के इन वचनों को सुनकर चाचिग ने कहा, "आपका वचन ही प्रमाण है । मैंने अपने पुत्र रत्न को गुरुजी को भेंट कर दिया" । देवचन्द्राचार्य इन वचनों को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और धर्म प्रचार की महत्त्वकांक्षा से उनका मुखकमल विकसित हो गया । इसके पश्चात् उदयन मन्त्री के सहयोग से चाचिग ने चाङ्गदेव का दीक्षा
१-तैः गुरुभि""पाल्यमान-प्रबन्धचिन्तामणि ।
आचार्य प्रश्ने""बान्धवभक्त्या प्रीत-पुरातन प्रबन्ध सङ्ग्रह । २-तावदा ग्रामान्तरादागत ""अस्पृश्यो मे द्रव्यसञ्चय-प्रबन्धचिन्तामणि । ..
तदनु चाङ्गदेवं तदुत्सङ्गे निवेश्य"ततौ गुरुभ्योददौ–पुरातन प्रबन्ध सङग्रह। .