SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८ - आचार्य हेमचन्द्र सुहस्तिन् । स्थूलभद्र ने उन्हें पढ़ाया । फिर वे जैन-धर्म के प्रचार के लिये विचरण करने लगे। आचार्य हेमचन्द्र का 'परिशिष्ठपर्वन्' न केवल जैन कथा-सङ्ग्रहों में श्रेष्ठ है अपितु सम्पूर्ण संस्कृत कथासाहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखता है । उसमें 'पञ्चतन्त्र' के अनुसार नीतिधर्म का उपदेश है और 'बृहत्कथा', 'कथासरित् सागर' के अनुसार मनोरंजन भी है । अत: 'पञ्चतन्त्र' और 'बृहत्कथा' का समुचित सामञ्जस्य आचार्य हेमचन्द्र की कथाओं में पाया जाता है। इसके अतिरिक्त धर्म-प्रचार के साधन के रूप में भी ये कथाएं साधारण जनता में लोकप्रिय हुई। 'कथासरित्सागर' और 'परिशिष्ठपर्वन' की कतिपय कहानियों का रूपान्तर चीन की कहानियों में भी पाया जाता है। समन्वय भावना का विकास-नानारूपात्मक सृष्टि में सामन्जस्यका करने का प्रयास भारतीय संस्कृति में अनादिकाल से होता आया है। अनेकता में एकता तथा एकता में अनेकता का साक्षात्कार प्रागैतिहासिक काल में ही ऋषि-मुनियों ने किया था। अतः भारतीय दर्शन की दृष्टि प्रारम्भ से ही व्यापक रही है। यद्यपि भारतीय दर्शन की अनेक शाखाएं हैं तथा उनमें मतभेद भी हैं फिर भी ये शाखाएं एक-दूसरे की उपेक्षा नहीं करती हैं। सभी शाखाएं एक-दूसरे के विचारों को समझने का प्रयत्न करती हैं । वे विचारों की युक्ति पूर्वक समीक्षा करती हैं और तभी किसी सिद्धान्त पर पहुचतीं हैं । इसी प्रक्रिया से समन्वय भावना' का उद्गम हुआ है । भारतीय दर्शन की इस व्यापक एवं उदार दृष्टि से ही भारतीय दर्शन में समन्वय भावना का विकास हुआ है तथा भारतीयों में परमत-सहिष्णुता, परधर्म-सहिष्णुता आयी है। 'एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति' इत्यादि उपनिषद्-वाक्य अथवा 'स्तैनाय नमः स्तेनानांपतये नमः' इत्यादि रुद्रसूक्त के मन्त्र समन्वय भावना के ही प्रतीक हैं । गौतम बुद्ध के 'मज्झिम मग्ग' (मध्यम मार्ग) की भी यही भावना है। जीवन का व्यवहार समुचित ढंग से चलाने के लिये भगवान कृष्ण ने गीता में मध्यम मार्ग का ही उपदेश दिया है । ऐकान्तिक उपवास से. शरीर सुखाने का उपदेश वे नहीं करते । खाना ही ध्येय है, ऐसा वे नहीं कहते । उसी प्रकार मन तथा शरीर के विकारों को कुचलकर समाप्त करने की अपेक्षा धर्माविरुद्ध काम के पक्ष में वे उपदेश देते हैं। (गीता ६-१७, ७-११) वेदपुराणों की बात तो समन्वयात्मक है ही; समय-समय पर साधु सन्तों ने, चाहे वे किसी भी सम्प्रदाय के क्यों न हों, सहिष्णुता का उपदेश देकर सम
SR No.090003
Book TitleAcharya Hemchandra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV B Musalgaonkar
PublisherMadhyapradesh Hindi Granth Academy
Publication Year1971
Total Pages222
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Biography, & Literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy