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हेमचन्द्र की बहुमुखी प्रतिभा
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नियों को एवं महान् साहसिक कार्यों में भाग लेने वाले उनके पात्रों को जैन धर्म के व्याख्याताओं के रूप में चित्रित करने के प्रयत्न में बिगाड़ देते थे। आचार्य हेमचन्द्र भी सच्चे जैन थे। वे अपने धर्म के उत्साही प्रचारक थे। धर्म में आस्था के कारण उन्होंने वस्तुओं और घटनाओं को विकृत रूप में देखा है । इस प्रकार की रचनाओं में हेमचन्द्र के 'परिशिष्ठपर्वन्' को प्रथम स्थान देना चाहिये- जो उन्हींके पौराणिक काव्य 'त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित' का एक परिशिष्ट है।
जैन परम्परा में पुराकथाएं शैली और कहावतों में धार्मिक साहित्य की कृति के निकट पहुँचने की प्रवृति प्रदर्शित करती हैं । आचार्य हेमचन्द्र भी इसके अपवाद नहीं थे। उनका 'परिशिष्ठपर्वन्' कथा-साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इन कथाओं का उद्देश्य मनोरंजन की अपेक्षा उपदेश देना है । इस ग्रन्थ की अधिकांश कहानियाँ नैतिकता का प्रचार करने वाली हैं। जिन कथाओं को आचार्य जी कहते हैं, वे पौराणिक उपाख्यानों के ढंग की न होकर विशेष रूप से साधारण लोककथाओंसी हैं। अतः एक प्रकार से पञ्चतन्त्रादि कथाओं के ही लक्ष्य को उन्होंने अपनी कहानियों में आगे बढ़ाया है तथा उनका अपने सम्प्रदाय के प्रचार में समुचित उपयोग कर लिया है। यह प्रवृति प्रभाचन्द्र के प्रभा. वक् चरित में भी दिखायी देती है जिसमें हेमचन्द्र के 'परिशिष्ठपर्वन्' को ही भागे बढ़ाया है।
प्राचीन नोति-कथाओं एवं लोक-कथाओं में तथा 'परिशिष्ठपर्वन' की कथाओं में मौलिक अन्तर है । आचार्य हेमचन्द्र का प्रधान लक्ष्य जैन धर्म प्रचार है । इसलिये 'पञ्चतन्त्र' या 'हितोपदेश' के अनुसार केवल पशुपक्षियों की कहानियाँ 'परिशिष्ठपर्वन्' में नहीं जिनका एकमात्र उद्देश्य सदाचार, राजनीति, व्यवहार एवं कुशलता का उपदेश था। 'बृहत कथा' अथवा 'कथासरित्सागर' के समान इन कहानियों का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं है । उनका प्रधान लक्ष्य धर्मप्रचार होने के कारण उनमें ऐतिहासिक तथ्यों को भी तरोड़-मरोड़ कर सम्प्रदायानुकुल बनाया गया है। हितोपदेश' और 'पञ्चतन्त्र' सम्प्रदाय-निरपेक्ष हैं, किन्तु हेमचन्द्र की कथाओं का उद्देश्य जैन-धर्म-प्रचार है। यथा-परिशिष्ठपर्वन्' का नवम सर्ग, एकबार स्थूलभद्र अपने पुराने मित्र धनदेव के यहां गये, धनदेव की धनहानि बहुत हो गयी थी इसलिये वह कहीं बाहर गया हुआ था। धनदेव की पत्नी से धन घर में ही छुपे रहने की बात स्थूलभद्र ने बतलायी। धनदेव के वापिस आने पर उसने यह बात सत्य पायो । फिर धनदेव पाटलीपुत्र गया और जैन-धर्म में दीक्षित हो गया । स्थूलभद्र के दो शिष्य थे-महागिरि और